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पुराण
॥३३॥
किरण है जब सूर्य अस्त होय है तब चंद्रमा कांतिका घरे है और प्रकाश विषे नक्षत्रों के समूह प्रगट होय हैं सूर्यकी कांति से नक्षत्रादि नहीं भासे ह इसी प्रकार पहिले कल्पवृक्षोंकी ज्योतिसे चंद्रमा सूर्यादिक नहीं भासते थे अब कल्पवृक्षोंकी ज्योति मंदभई इसलिये भासे हैं यह कालका स्वभाव जानकर तुम भय को तजो कुलकर का बचन सुनकर उनका भय निवृत्त भया॥
चौदवें कुलकर श्रीनाभि राजा जगत् पूज्य तिनके समय में सबही कल्पवृक्षोंका अभाव भया और युगल उत्पत्ति मिटी अकेलेही उत्पन्न होने लगे तिनके मरुदेवी राणी मनकी हरणहारी उत्तम पतिव्रता जैसे चन्द्रमाके रोहिणी,समुद्र केगंगा,राजहंसके हंसिनी तैसे यह नाभि राजाके होती भई, वह राणी राजाके मन में वसहै उसकी हंसिनी केसी चालऔर कोयलकैसे वचनहें जैसे चकवीकी चकवेसों प्रीति होयहै तैसे राणीकी राजासों प्रीति होतीभईराणीको क्या उपमा दीजाय जो उपमा दीजाय वह पदार्थराणीसे न्यूननजर आवेहैं, सर्व लोकपूज्य मरुदेवी जैसे धमके दया होय तैसे त्रैलोक्यपूज्य जो नाभिराजा उसके परमप्रिय होतीभई, मानो यह राणी आताप की हरण हारी चन्द्रकला ही कर निरमापी (बनाई) है, आत्मस्वरूप की जानन हारी सिद्ध पदका है ध्यान जिस को ब्रैलोच की माता महा पुण्याधिकारनी मानो जिनवाणी ही है और अमत का स्वरूप तृष्णा की हरण हारी मानो रत्न बृष्टि ही है सखियों को आनन्द की उपजावन हारी महा रूपवती काम की स्त्री जो रति उस से भी अति सुन्दर है, महा अानन्द रूप माता जिन का शरीर ही सर्व आभूषण का आभूषण है जिस के नेत्रों समानं नील कमल भी नहीं और जिसके केश भ्रमरों से भी अधिक श्याम, वह केश ही ललाट का शृङ्गार हैं यद्यपि इनको आभूषणों की अभिलाकर
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