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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir पद्म करूतो राणी मरणको प्राप्त होय सो इस से मेरा बैर नहीं इस लिये जब यह गर्भ से वाहिर श्रावेतब मैं इसे दुखदं ऐसा चितवता हुआ पूर्व कर्म के बैर से क्रोधायमान जो देव सो कुण्डल मंडित के जीव पर हाथ मसले ऐसा जान कर सर्व जीवन से क्षमा करनी किसी को दुख न देना जो कोई किसी को दुख देय है सो श्राप को ही दुख सागर में डुबोवे है ॥ ___अथानंतर समय पाय रानी बिदेहाके पुत्र और पुत्रीका युगुल जन्म भया तबवह देवपुत्र को हरता भया सो प्रथम तो क्रोध के योग से उसने ऐसी बिचारी कि मैं इसे शिलापर पटक मारूं फिर बिचारी कि धिक्कार है मुझे मैं ऐसा अनन्तसंसारका कारण पापचिंतया बालहत्या समान और कोई पापनहीं पूर्वभवमें मैं मुनिव्रत धरेथे सोतृणमात्रका भी बिराधन न किया सर्व प्रारम्भतजा नानाप्रकार तप किये श्री गुरुके प्रसाद से निर्मल धर्म पाय ऐसी बिभूति को प्राप्त भया अब में ऐसा पाप कैसे करूं अल्प मात्र भी पापकर महादुःखकी प्राप्ति होयहै पाप से यह जीव संसार वनविषे बहुत काल दुख रूप अग्नि में जले है जो दयावान निदोर्षहै जिसकी भावना महासावधानरूप है सो धन्यहै सुगतिनामा रत्न उसके हाथमें है वह देव ऐसा विचारकर दयावान होयकर बालकको आभूषण पहिराय कानन विषे महा देदीप्यमान कुण्डल घाले परणलब्धीनामा विद्याकर आकाशसे पृथ्वीविषेसुखकी ठौर पधराय आप अपने घाम गया सो रात्रीके समय चन्द्रगतिनामा विद्याधरने इस बालकको आभरणकी ज्योतिकर प्रकाशमान श्राकाशसे पड़ता देखा तब बिचारी कि यह नक्षत्रपात भया तथा विद्युत्पातभया यह बिचारकर निकट अाए देखे तो बालकहै तब हर्षकर बालकको उठाय लिया और अपनी राणी पुष्पवती जो सेजमें सूती For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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