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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराख ॥४०३॥ समुद्र में ड्वा विरहसे महा दुखित भया किसी जगह सुख को न पावे चक्र विषे प्रारूढ़ समान इस का चित्त व्याकुल भया हरी गई है भार्या जिस की ऐसा जो यह दीन ब्राह्मण सो राजा पै गया और कहता भया हे राजा ! मेरी स्त्री तेरे राज में चोरी गई जे दरिद्री अार्तिवन्त भयभीत स्त्री वो पुरुष उनको राजाहीशरण हैं, तब राजा धर्त और उस के मन्त्री भी धूत्त सो राजा ने मंत्री को बुलाय झठमठ कहा इसकी स्त्री चोरीगई है उसे पैदा करो ढील मत करो तब एक सेवकने नेत्रोंकी सैन मार कर मत कहो। हे देव ! में इस ब्राह्मणकी स्त्री पोदनापुर के मार्ग में मुशाफिरोंके साथ जाती देखी सो आर्यिकाओं के मध्य तप करणे को उद्यमी है इसलिये हे ब्राह्मण ! तू उसे लाया चाहे तोशीघ्र ही जा, ढील काहे को करे उसका अवार दीक्षाघरने का समय कहां तरुण है शरीर जिसका और महाश्रेष्ठ स्त्री के गुणों से पूर्ण हैं ऐसा जब झठकहा तब ब्राह्मणगाढ़ी कमरखांध शीघ्र उसकी ओर दौड़ा, जैसे तेजघोड़ा दौड़े सो पोदनापुर में चैत्यालय तथा उपधनादि बन में सर्वत्र ढूंडी कहूं ठौर न देखी तब पीछे विदग्धनगर में आया सो राजा की श्राज्ञा से ऋरमनुष्यों ने गलहटा देय लष्टमुष्टि प्रहार कर दूर किया, ब्राह्मण स्थान भ्रष्टभया क्लेश भीगा अपमान लहा मार खाई एते दुःख भोग कर दूर देशांतर उठ गया, सो प्रिया विना इस को किसी और सुख नहीं जैसे अग्नि में पडा सर्ष सँसै तैसे यह रात दिन संसता भया विस्तीर्ण कमलों का बन इसे दावामल समान दीखे और सरोवर अवगाह कस्ता विरहरूप अग्नि से वले इसभान्ति यह महा दुखी पृथिवी पर भ्रमण करे एक दिन नगर से दूर बम में मुनि देखे मुनि जिनकानाम आर्यगुप्ति बड़े या चाय तिनके निकट जॉय हाथ जोड़ नमस्कार कर धर्म श्रवण करता भया, धर्म श्रवण कर इसको वैराग्य Late For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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