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पुराण M३१.
जलचरादि जंतु रहित महा रमणीक दुग्ध (दूध ) घी मिष्टान्न जलकी भरी अत्यन्त स्वाद संयुक्त प्रवाहरूप बहे है, जिनके तट रत्ननकी ज्योतिसे शोभायमान हैं । जहां वेइन्द्री तेइन्द्री चौइन्द्री असेनी पंचेन्द्री तथा जलचरादि जीव नहीं हैं, जहां थलचर, नभचर. गर्भज तिथंच हैं, वह तिर्यंच भी युगल ही उपजे हैं, वहां शीत उष्ण वर्षा नहीं, तीन पवन नहीं,शीतल मंद सुगंध पवन चलेहें और किसी भी प्रकारका भय नहीं सदा अद्भुत उत्साह ही प्रवर्ते है और ज्योतिरांग जाति के कल्पवृक्षोंकी ज्योति से चांद सुर्य नजर नहीं आते हैं, दशही जाति के कल्प वृत्त सर्वही इंद्रियों के मुख स्वादके देने वाले शोभे हैं, जहां खाना, पीना, सोना, बैठना, वस्त्र, आभूषण, सुगन्धादिक संबही कल्प वृत्तोंसे उपजे हैं और भाजन (वर्तन) तथा वादिनादि ( वाजे) महा मनोहर सर्व ही कल्प वृक्षों से उपजे हैं यह कल्प वृत्त बनस्पति काय नहीं और देवाधिष्ठित भी नहीं केवल पृथ्वीकाय रूप सार बस्तु है, तहां मनुष्यों के युगल ऐसे में हैं जैसे स्वर्ग लोक में देव ।
जब लोक के वर्णन में गौतम स्वामीने भोगभूमि का वर्णन किया तब राजा श्रेणिकने भोग भूमि में उपजने का कारण पूछा सो गणधर देव कहे हैं कि जैसे भले खेत में बोया वीज बहुत गुणा होकर फले हैं और इतु में प्राप्त हुआ जल मिष्ट होय हे और गाय ने पिया जो जल सा दूध होय परिणमे है तैस व्रतकर मंडित परिग्रह रहित मुनिको दिया जो दान सो महा फल को फले है, जो सरल चित्त साधनों को आहारादिक दान के देने वाले हैं वे भोगभूमि में मनुष्य होय हैं और जैसे निरस क्षेत्र में बोया बीज अल्प फल को प्राप्त होय और नींब में गया जेल कटुक होय है ।
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