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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३९०० %3 शक्ति में महा श्रेष्ठ राजा को कहता भया हे नाथ!जीतन्य के अर्थ सकल करियेहै जो त्रिलोकीकाराज्य भावे और जीव जाय तो कौन अर्थ, इसलिये जब लग में तुम्हारे बैरियों का उपाय करूं तब लगतुम अपना || रूप छिपाय कर पृथिवी पर विहार करो ऐसा मंत्रीने कहा तव राजा देश भंडार नगर इसको सौंपकर नगर से बाहिर निकसे राजा के गए पीछे मंत्री ने राजा दशरथ के रूप का पुतला बनाया एक चेतना नहीं और सब राजा ही के चिन्ह बनाए लाखादि रस केयोग कर उसविषे रुधिर निरमापा और शरीर की कोमलता जैसी प्राणधारी की होय तैसी ही बनाई सो महिल के सातवें खण में सिंहासन विषे विराजमान किया सो समस्त लोकों का नीचे से मुजरा होय ऊपर कोई जाने न पावे, रोजा के शरीर में रोग है पृथिवी पर ऐसा प्रसिद्ध किया। एक मंत्री और दूजा पूतलाबनाने वाला यह भेद जाने, इनको भी देख कर ऐसा भ्रम उपजे जो राजा हीहै और यही वृतान्त राजा जनक के भया जे कोई पण्डित हैं तिनके बुद्धि एक सी ही है मंत्रियों की बुद्धि सब के ऊपर होय विचरे है । यह दोनों राजा लोकस्थिति के वेत्ता पृथिवी में भागे फिरें आपदाकाल विषे जे रीति बताई हैं उस भांति करें जैसे वर्षा काल में चांद सूर्यमेघ के जोर से छिप रहें तैसे जनक और दशरथ दोनों लिप रहे ॥ यह कथा गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहे हैं हे मगघदेश के अधिपति वे दोनों बड़े राजा महा सुन्दर हैं राजमन्दिर जिनके और महामनोहर देवांगना सारिखी स्री जिनके महा भोगों के भोक्ता सो पायन पियादे दलिदी लोकन की न्याई कोई नहीं संग जिनके अकेले भ्रमते भए, धिक्कार है संसार के स्वरूप को ऐसा निश्चय कर जो पाषी स्थावर जंगम सर्व जीवों को अभयदान दें सो आप भी भय से कंपायमान न होय, इस अभयदान समान कोई दान । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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