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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyarmandir पुरावा ॥३८॥ दर्शनके योगसे निस्संदेह ऊर्धगतिहीहे सो ऐंसा जान राजाके सम्यक दर्शनको दृढ़ता होती भई औरजे भगवानके चैत्यालय प्रशंसा योग्य आगे भरत चक्रवर्त्यादिकने कराएथे तिनमें कैयक ठोरं कैयक भंग भावको प्राप्त भएथे सोराजा दशरथने तिनकी मरम्मत कराय ऐसे किए मानों नवीनही हैं और इन्द्रोंसे नमस्कार करने योग्य महा रमणीक जे तीर्थकरोंके कल्याणक स्थानक तिनकी रत्नोंके समूहसे यह राजा पूजा करता भया । गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं हे भव्यजीव ! दशरथ सारिखे जीवपर भवमें महा धर्मको उपार्जकर अति मनोग्य देवलोककी लक्ष्मी पायकर इसलोकमें नरेन्द्र भएहैं महाराज द्धिके भाक्ता सूर्य समान दों दिश विष है प्रकाश जिनका ॥ इति बाईसवां पर्व संपूर्णम् ।। अथानन्तर एक दिन राजा दशरथ महो तेज प्रताप संयुक्त सभा में विराजते थे कैसे हैं राजा जिनेन्द्र की कथा में आसक्त है मन जिनका और सुरेन्द्र समान है विभव जिनका उस समय अपने शरीर के तेज से आकाश से उद्योत करते नारद आए तव दूर ही से नारद को देखकर राजा उठ कर सनमुख गए बड़े आदर से नारद को न्याय सिंहासन पर विराजमान किये राजा ने नारद की कुशल पूछी नारद ने कही जिनेंद्रदेव के प्रसादकर कुशलहै फिरनारद ने राजा को कुशल पछी राजा ने कही देव गुरुधर्म के प्रसाद से कुशल है फिर राजानेपछी हे प्रभो आपकौन स्थानक से आए इन दिनों में कहा २ बिहार किया क्यादेखा क्यासुना तुमसे अढाई दीप में कोई स्थानक अगोचर नहीं तव नारद कहतेभए कैसे हैं नारद जिनेंद्रचन्द्र के चरित्र देख कर उपजा है परमहर्ष जिनके हे राजन !मैं महा विदेह क्षेत्र विषे | गयाया कैसा है वह क्षेत्र उत्तम जीवों से भरा है जहां और २ श्रीजनराज के मन्दिर और और २महामुनि | For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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