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ऋषभदेव का समय प्रकट किया सो राजा हरि की पुत्री अमृतवती महा मनोहर उस ने परणी राजा अपने मित्र बांधवों से संयुक्त पूर्णद्रव्य के स्वामी मानों स्वर्ग के पर्वत ही हैं सर्वशास्त्र के पारगामी देवोंसमान उत्कृष्ट भोग भोगते भए, एक समय राजा उदार है चित्त जिन का दर्पण में मुख देखते थे सो भ्रमर समान/ श्याम केशों के मध्य एक सुफ़ेद केश देखा, तब चित्त में विचारते भए कि यह काल का दूत आया बलात्कार ! यह जरा शक्ति कांति की नाश करणहारी इस से मेरे प्रांगोपांग शिथिल होवेंगे यह चन्दन के वृक्ष समान मेरी काया अब जरारूप अग्नि से, जलकर अंगार तुल्य होयगी यह जरा छिद्र हेरे ही है सो समय पाय ! पिशायनीकी नयाई मेरे शरीरमें प्रवेश कर, बाघा करेगी और कालरूप सिंह चिरकाल से मेरे भक्षणका ! अभिलाषीथा सो अब मेर देहकोबलात्कारसे भरेगा, धन्यहै वह पुरुषजोकर्म भूमिको पाय कर तरुण अवस्था। में बत रूप जहान विषे चढ़ कर भवसागर को तिरें, ऐसा चितवन कर राणी अमृतवती का पुत्र जो नघोष । उसे ही राज पर थाप कर विमल मुलि के निकट दिगंवरी दिक्षा घरी, यहनघोषजबसे माता के गर्भ में पाया। तब ही से कोई पाप का वचन न कहे इसलिये नघोष कहाए पृथिवी पर प्रसिद्ध हैं गुण जिनके तिन गुणों के पुंज तिनके सिंहिका नाम राणी उसे अयोध्या विषे राख उत्तर दिशा के सामंतों को जीतने चढ़े, तब राजा को दूर गया जान दक्षिनदिशा के राजा बड़ी सेना के स्वामी अयोध्या लेने को आए, तब राणी सिंहिका महाप्रतापिनी बड़ी फ़ौज से चढ़ी, सो सर्व वैरियों को रण में जीत कर अयोध्या दृढ़ थाना राख
आप अपने सामंतों को ले दक्षिण दिशा जीतने को गई कैसी है राणी शास्त्र विद्या और शस्त्र विद्या का किया है अभ्यास जिसने प्रताप कर दक्षिण दिशा के सामंतों को जीत कर जय शब्द कर पूरित ।
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