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॥३५॥
पद्म
| है जीवों ने अनन्त भवकिये सो कहांलोकहिए परन्तु एकै एक भव कहिएहें। एक गोवधन नामा ग्राम वहां पुराण
भले भले मनुष्यवसे वहां एक जिनदत्त नामा श्रावक बड़ागृहस्थी जैसे सर्वजलस्थानकोंसे सागर शिरोमणि है और सर्व गिरों में सुमेरु और सर्व ग्रहों विषे सूर्य्य तृणों में इत्तु, वेलों में नागरवेल वृक्षों मे हरिचन्दन प्रशंसा योग्यहै तैसे कुलों में श्रावग का कुलसर्वोत्कृष्ट पाचोरकर पुजनीकहैसुगतिकाकारणहै. सो जिनदत्त नामा श्रावक गुणरूप आभूषणों से मण्डित श्रावगवतपाल उत्तम गतिकोगया. औरउसकी स्त्री विनयवती महापतिव्रता श्रावकाके व्रत पालन हारी सो अपने घरकी जगह में भगवानकाचैत्यालय बनाया। सकल द्रव्य वहां लगाये और आर्या होय महातप कर स्वर्गमें प्राप्तभई और उसी ग्राम विषेएक और हेमवाहु । नामा गृहस्थी आस्तिकदुराचार से रहित सो विनयवती का कराया जो जिनमन्दिर उसकी भक्ति से यक्ष । देवभया सोचतुर्विधि संघ की सेवा में सावधान सम्यक्दृष्टि जिनबन्दना में तत्पर, सो चयकर मनुष्य भया । फिर देव फिर मनुष्य इस भांति भव धर महापुरी नगरी में सुप्रभनामा राजा उसके तिलक सुन्दरी रानी गुण रूप आभूषण की मंजूषा उसके धर्मरुचि नामा पुत्र भया, सो राज्य तज सुप्रभनामा पिता जोमुनि उसका शिष्य होय मुनिबत अंगीकार करताभया पंच महाव्रत पंच सुमति तीन गुप्त का प्रति पालन प्रात्म। ध्यानी गुरु सेवा में अत्यंत तत्पर अपनी देहीविषे अत्यंत निस्पृह जीव दयाका धारक, मन इन्द्रियों काजीतनेहाराशील के सुमेरु शंकाआदि जे दोष तिनसे अति दूर साधुवोंका वैयाव.करनहारा सोसमाधि
मरणकर चौथेदेवलोकमें गया वहां सुख भोगता भया वहांसे चयकर नागपुरमें राजा विजयराणी सहदेवी , | तिनके सनत्कुमार नामापुत्र चौथेचक्रवर्तीभए छहखण्ड पृथिवीविषे जिसकी आज्ञाप्रवस्ती सो महारूपवान् ।
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