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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण आचरण तू मतकर योग्य क्रिया करने के योग्यहै यह मनुष्यदेह पाय जो सुकृत न करे हे सो हाथसे रत्न .३१३३ खोयें हैं मन तथा वचन तथा काय से जो शुभक्रियाकासाधन है सोई श्रेष्ठहै और अशुभ क्रियाकासाधनहै सो दुःख का मूल है जे अपने कल्याण के अर्थ सुकृत विषे प्रवरते हैं वेई उत्तम हैं यह लोक महानिंद्य अनाचार | का भरा है जे संत संसार सागरसे आप तिरे हैं औरों को तारे हैं भव्य जीवों को धर्म का उपदेश देय हैं उन समान और उत्तम नाहीं वे कृतार्थ हैं उन मुनियों के नाथ सर्व जगत् के नोथधर्म चक्री श्रीअरिहंत देव तिनके प्रतिबिंब का जे अविनय करे हैं वे अज्ञानी अनेक भव में कुगति के महादुःख पावे हैं सो उन दुःखों को कौन बरणन कर सके, यद्यपि श्रीवीतराग देव रागद्वेष रहित हैं जे सेवाकरेंउनसेप्रसन्न नहीं औरजे निंदा करें तिनसे द्वेष नहीं महामध्यम भाव को धरें हैं परन्तु जेजीव सेवा करें वे स्वर्ग मोक्ष पावे हैं जेनिन्दा करेंवे नरक निगोद जावें क्योंकि जीवों के शुभ अशुभ परणामों से सुख दुःख की उत्पत्ति होय है जैसे अग्नि के सेवन से शीत का निवारण होय है और खान पान से क्षुधा तृषा की पीड़ा मिटे है तैसे जिनराज के अर्चन से स्वयमेव ही सुख होय है और अविनय से परमदुःख होय है, हे शोभने जे संसार में दुःख दीखे हैं वे सब पाप के फल हैं औरजे सुख हैं वेधर्म के फल हैं सोतू पूर्वपुण्य के प्रभाव से महाराजा की पटराणी || भई और महासंपतिवती भई और अद्भुत कार्य का करणहारा तेरा पुत्र है अब तू ऐसा कर जो फिर सुख पावे अपना कल्याण कर मेरे बचन से । हे भव्य ! सूर्य के औरनेत्र के होते संतेत कूप में मतपड़ें जो ऐसे कर्म करेगी तो घोर नरक में पड़ेगी देवगुरु शास्त्र का अविनय करना अनंत दुःख का कारण है और ऐसे || दोषदेख जो में तुझेन संबो तो मुझो प्रमाद का दोष लगे है, इसलिये तेरे कल्याण निमित्त धार्मोपदेश For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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