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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobanrth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir पद्म पुराण ॥३११॥ धर्मका व्याख्यान सुन सम्यक्दर्शन ग्रहणकिया श्रावक के व्रत मारे नानाप्रकारके नियम अङ्गीकारकिए। एकदिन जे सप्तगुण दाता के और नवधा भक्ति तिन संयुक्त होय सोधुवोंको आहार दिया कैएक दिनों | में समाधि मरणकर स्वर्ग लोकको प्राप्तभया नियमके और दानके प्रभावसे अद्भुत भोगभोगताभया सैकड़ों देवांगना के नेत्रोंकी कांतिही भई नील कमल तिनकी माला से अर्चित चिरकाल स्वर्गके सुख भोग यह फिर स्वर्गसे चयकर जम्बूद्वीप में मृगांकनामा नगरमें हरिचन्द नाम राजा उसकी प्रियंगुलक्ष्मी राणी उसके सिंहचन्द नामा पुत्र भए अनेक कलागुणोंमें प्रवीण अनेक विवेकियोंके हृदय में बसे वहां भी देवों कैसे भोग किये साधुवोंकी सेवा करी फिर समाधि मरणकर देवलोक गये वहाँ मन बांछित अति उत्कृष्ट सुख पाए कैसा है वह देव देवियों के जे वदन वेई भए कमल उनके जोबन उनके प्रफुल्लित करभेको सूर्य समान है फिर वहाँ से चयकर इस भरतक्षेत्र में विजिया गिरि पर अहनपुर नगरमें राजा सुकसठ राणी कनकोदरी उलके सिंह वाहन नाम पुत्र भए अपने गुणों से खेंचा है समस्त प्राणियों का मन जिसने वहां देवों कैसे भोग भोगे अप्सरा समान स्त्री तिनके मनके चोर भावार्थ अति रूपवान अतिगणवान सो बहुत दिन राज्यकिया श्रीविमलनाथजी के समोशरणमें उपजा है आत्मज्ञान और संसारसे वैराग्य जिन को सो लक्ष्मी वाहन नामा पुत्रका राज्य देकर संसारको असार जान लक्ष्मीतिलकमुनि के शिष्य भए श्रीवीतराग देवका भाषा महाव्रतरूप यतिका धर्मअंगीकार किया अनित्यादि द्वादश अनुप्रेक्षाका चिंतबन कर ज्ञान चेतनारूप भए जो तप किसी पुरुष से न बने सो तपकिया रत्नत्रयरूप अपने निज भावों में निशचिन्तभए परम तत्त्व ज्ञानरूप श्रात्मा के अनुभवमें मग्नभए तपके प्रभावसे अनेक ऋद्धि उपजी सर्व For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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