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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ शा एक किसाण वृतिकर क्लेशसे कुटुम्बका भरण पोषण करें हैं, जिसमें अनेक जीवोंकी बाधा करनपडती है ॥ इस भांति अनेक उद्यम प्राणी करें हैं उनमें दुःख क्लेशही भो में हैं, संसारी जीव विषय नखके अत्यन्त अभिलाषी हैं, कै एक तो दरिद्र से महा दुखी हैं और कई एक धन पायकर चोरवा अग्नि । वाजल वा राजादिकके भयसे सदा आकुलता रूप रहे हैं, और के एक द्रव्यको भोगते हैं परंतु तृष्णा रूप अग्निके बढ़नेसे जले हैं, के एकको धर्मकी रुचि उपजे है परंतु उनको दुष्ट जीव संसार ही के मारग में डारे हैं, परिग्रह धारियों के चित्तकी निर्मलता कहांसे होय, और चित्त की निर्मलता बिना । धर्म का सेवन कैसे होय, जब तक परिग्रह की आसक्तता है तब तक जीव हिंसा विषे प्रवृते हैं, और हिंसा से नरक निगोद आदि कुयाोन में महा दुःख भोगें हैं, संसार भूमण का मूल हिंसाही है, और जीव दया मोक्ष का मूल है, परिग्रहके संयोगसे राग द्वेष उपजे है सो रागद्वेषही संसारमें दुःख के कारण हैं, कै एक जीव दर्शन मोहके अभावसे सम्यक् दर्शनकोभी पावे हैं परन्तु चारित्र मोहके उदय से चारित्र को नहीं धार सक्ते हैं और कै एक चारित्र को भी घारकर बाईस परीषहों से पीड़ित होकर चारित्र से भ्रष्ट होय हैं, के एक अणुव्रतही धारे हैं और कै एक अणुबतभी धार नहीं सके हैं केवल अत्रत सभ्यक्ती ही होय हैं, और संसार के अनन्त जीव सम्यक्त से रहित मिथ्या दृष्टिही हैं, जो मिथ्या दृष्टि । हैं वे बार बार जन्म मरण करे हैं, दुःख रूप अग्नि से तपतायमान भव संकटमें पड़े हैं, मिथ्या दृष्टि जीव जीभ के लोलुपी हैं और काम कलंकसे मलीन हैं क्रोध मान माया लोभ में प्रवृत्ते हैं, और जो पुण्याधिकारी जीव संसार शरीर भोगने से विरक्त होकर शीघही चारित्रको धारे हैं और निबाहै हैं और संयम में For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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