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पुराण
॥३०॥
जाग्रत रहे निद्रा न लाना पिचल पाहेर अल्पनिद्रा भाई प्रभातका समय हो आया तब यह पतिव्रता सेज | से उतर पति के पाय पलोटने लगी रात्रि व्यतीत भई सो सुख में जानी नहीं प्रातः समय चन्द्रमा की किरण फीकी पड़ गई कुमार आनन्द के भार में भर गए और स्वामी की आज्ञा भूल गए, तब मित्र प्रहस्त ने कुमार के हित विषे है चित्त जिसका ऊंचाशब्द कर बसन्त माला को जगा कर भीतर पठाई और मन्द मन्द श्राप भी सुगन्ध महल में मित्र के समीप गए और कहते भए हे सुन्दर उठो कहां सोवो हो अब चन्द्रमा भी तुम्हारे मुख की कांति से कांति रहित होगया है यह वचन सुन कर पवनंजय प्रबोध को प्राप्त भए शिथिल है शरीर जिनका जंभाई लेते निदा के आवेश कर लाल हें नेत्र जिन के कानों को बांए हाथ की तर्जनी अंगुली से खुजावते खुले हैं नेत्र जिनके दाहिनी भुजा संकोचकर अरिहंत का नाम लेकर सेजसे उठे प्राणप्यारी आपके जागने से पहिले हीसेजसे उठ उतर कर भूमि विषे विराजती थी लज्जाकर नम्रीभूत हैं नेत्र जिसके उठते ही पीतम की दृष्टि प्रिया पर पड़ी फि प्रहस्त को देख कर, आवोमित्र ऐसा शब्द कहकर सेजसे उठे प्रहस्तने मित्रसे रात्रिकी कुशल पूछी निकटबैठे मित्रनीतिशास्त्र के वेत्ता कुमार से कहते भर हे मित्र अब उठो प्रियाजी का सन्मानफिर श्रोयकर करियो कोई न जाने इस भान्ति कटक में जाय पहुंच अन्यथा लज्जा है स्थनूपुर का धनी किन्नरगीतनगरकाधनी रावणके निकट गया चाहे है सो तुम्हारी ओर देखे है जो बे आगेश्रावें तो हम मिल कर चलें और रावण निरंतर मंत्रियों से पूछे है कि पवनंजयकुमार के डेरे कहां हैं और कब आयेंगे इस लिये अब आप शीघ्र हीरावन के निकट पधारो प्रियाजी से विदा मांगो तुमको पिताकी और रावण की आज्ञो अवश्य करनीहै कुशल ।
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