________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पद्म
॥२६॥
प्रवीण हैजे विचार कर कार्यकरें हैं वे प्राणी सुखपावें हैं ऐसा पवनकुमारको बिचारउपजा सो प्रहस्त. मित्र उसके सुख में सुखी दुख में दुखी इसको चिन्तावान देख पूछता भया कि हे मित्र ! तुम रावण की मदतकरनेको बरुण सारिखेयोधासे लडने कोजावोहो सोअतिप्रसन्नता चाहिये तबकार्यकी सिद्धि होय
आजतुम्हारा बदनरूपकमल क्यों मुरझायादीखे है लजाको तजकरमुझे कहो तुमको चिन्तावान देखकर मेराव्याकुलभावभयाहै तवपवंनजयनेकहीहेमित्र! यह बााकिसी औरसे कहनी नहीं परन्तु तु मेरे सर्वरहस्य का भाजन है तुझसे अंतरनहीं यहबात कहते परमलजा उपजे है तब प्रहस्त कहते भए जो तुम्हारे चित्तमें होयसो कहो जो तुम आज्ञाकरोगे सो बात और कोई न जानेगा जैसे ताते लोहेपर पड़ीजल की बून्द विलाय जाय प्रगट न दीखे तैसे मुझे कही बात प्रगट न होय तबपवनकुमार बोले हे मित्र! सुनो में कदापिअंजनी सुन्दरी से प्रीति न करी सो अब मेरामनप्रति ब्याकुल है मेरी कूरतादेखो एते वर्षपरणे भए सो अबतक बियोग रहा निःकारण अप्रीतिभई सदावहशाककी भरी रही अश्रुपात झरते रहे और चलते समयद्वारेखडी बिरह रूपदाहसे मुरझाया गया है मुखरूप कमल जिसका सर्व लावण्य संपदारहित मैने देखी अबउसके दीर्ष नेत्र नीलकमल समान मेरेहृदयको वाणवतभेदे हैं इसलिएऐसा उपायकर जिससे मेरा उससेमिलाप होय हे सज्जन!जो मिलापन होयगा तो हमदोनोंहीका मरणहोगा तब प्रहस्तक्षणएक विचारकर बोले तुम माता पिता से प्राज्ञामांग शत्रुके जीतबेको निकसेहो सो पीछे चलना उचित नहीं ,और अब तक कदापि अंजनी सुन्दरी यादकरी नहीं और यहां बुलावे तो लज्जाउपजे है इसलिये गोप्यचलना और गोप्यही भावना वहां रहनानहीं उनका अवलोकनकर मुख
For Private and Personal Use Only