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पद्म पुराण ॥२९॥
कभीभी केश समारे गये नहीं केशभी रूपे पड़गये सर्व क्रिया में जड मानों पृथिवीहीका रूप होहीरही है
और निरन्तर प्रांसुवों के प्रवाहसे मानो जलरूपही होयरही है हृदयके दाहके योगसे मानो अग्निरूपही होयरही है और निश्चल चित्तके योगसे मानोवाय रूपही होय रही है और शन्यताके योगसे मानो गगन रूपही होयरही है मोहके योगसे आछादित होय रहा है ज्ञान जिसका भूमिपर डार दिये हैं सर्व अंग जिसने बैठन सके और वैठे तो उठ न सके और उठे तो देहीको थांभ नसके सोसखी जनका हाथपकड़ विहारकरे सो पग डिगजाय और चतुर जे सखीजन तिनसे बोलनेकी इच्छा करे परन्तु बोल न सके और हंसनी कबूतरीश्रादि गृह पक्षी तिनसे क्रीडाकिया चाहे पर कर न सके यह बिचारी सबोंसे न्यारी बैठीरहे पतिम लग रहाहै मन और नेत्र जिसकोंनिःकारण पतिसे अपमान पाया सो एकदिन वरस बराबरजाय यह इसकी अवस्था देख सकल परिवार ब्याकुल हुवा सवही चितवतेभए कि इता दुख इसको विना कारण क्यों भया है यह कोई पूर्वोपार्जित पाप कर्म का उदय है पिछले जन्म में इसने किसीके सुख विषे अन्तराय कियाहै सो इसकेभी सुखका अन्तरायभया वायुकुमारतो निमित्त मात्रहै यह बारी भोरी निरदोष इसे परणकर क्यों तजी ऐसी दुलहिन सहित देवों समान भोग क्यों न करे इसने पिताके घर कभी रंचमात्र भी दुख न देखा सो यह कर्मानुभाव कर दुखके भारको प्राप्त भई इसकी सखीजन विचारे हैं कि क्या उपाय करें हम भाग्य रहित हमारे यत्नसाध्य यह कार्य नहीं यह कोई अशुभकर्मकी चालहै अब ऐसा दिन कबहोयगा वह शुभमुहूर्त शुभ बेला कब होयगा जो वह प्रीतम इस प्रियाको समीप ले बैठेगा और कृपा दृष्टिकर देखेगा मिष्ट बचन बोलेगा यह सबके अभिलाषा लग रही है ।
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