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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥२८॥ मनमें विचारी कि इसे परणकर तजदूंगा ताकि दुःखसे जन्म पुराकरे और परकाभी इसेसंयोगन होय सके । अथानन्तर कन्या प्राणवल्लभ को पीछे आया सुन कर हर्षित भई रोमांच होय आए लग्न के समय इनका विवाहमंगल भया जब दलहे को दुलहिन का करत्रहण कराया सो अशोक के परसवसमान आरक्त अति कोमल कन्या के करसो इस विरक्त चित्तके अग्निकी ज्वाला समान लगे विना इच्छा कुमार की दृष्टि कन्या के तनुपर काहू भांति गई सो क्षणमात्र भी न सह सका जैसे कोई विद्युत्पात को न सह सके। कन्याके प्रीति बरके अप्रीति यह इसके भावको न जाने ऐसा जान मानोंअग्निहंस्ती भई और शब्द करती भई, बडे विधान से इनका विवाह कर सर्वबंधू जन आनन्द को प्राप्त भए पान सरोवर के तट विवाह भया नानाप्रकार वृक्षलता फल पुष्प विराजित जो सुंदर वन वहां परम उत्सवकर एक मास रहे परस्पर दोनों समधियों ने अति हित के वचन आलाप कहे परस्पर स्तुति महिमा करी सन्मान किए पुत्री के पिता ने बहुत दान दिया अपने अपने स्थान को गए। हे श्रेणिकजे वस्तुका स्वरूप नहीं जाने हैं और विना समझे परायेदोष ग्रहे हैं वे मूर्ख हैं और पराए दोष कर आप ऊपर दोष आयपड़े हैं सो सब पाप कर्म का फल है॥ इति पन्द्रहवां पर्व सम्पूर्णम अथानन्तर पवनञ्जयकुमार ने अञ्जनी सुन्दरी को परण कर ऐसी तजी जो कभी बात न बझे सो वह सुन्दरी पती के असंभाषण से और कृपा दृष्टि कर न देखने से परम दुःख करती भई रात्री में भी निद्रा न लेय निरन्तर अश्रुपातही झरा करें शरीर मलिन होगया पतिसे अति स्नेह धनीका नाम अति सुहावे पवन जावे सोभी अति प्रिय लगे पतिका रूप नो विवाह की वेदी में अवलोकन कियाथा उस For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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