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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म रहित भया कपोलों में हाथ लगाय शोकवान् बैठा पसेबसे टपके हैं कपोल जिसके उष्ण निश्वास कर पुराणमुरझाये हैं होंठ जिसके और शरीर कम्पायमान भया वारम्वार जंभाई लेने लगा और अत्यन्त अभिलाषा २८१ रूप शल्यसे चिन्तावान भया स्त्री के ध्यान से इन्द्रिय व्याकुल भए मनोग्य स्थानभी इसको रुचिकारी लगे चित्त शून्यता धारताभया तजी है समस्त शृंगारादि क्रिया जिसने क्षणमात्र में आभूषण पहिरे क्षणमात्रमें खोलडारे लज्जा रहित भया क्षीण होगया है समस्त अङ्ग जिसका ऐसी चिन्ता धारताभया कि वह समय कब होय जो मैं उस सुन्दरी को अपने पास बैठी देखूं और उसके कमल तुल्य गोत्रको स्पर्श करूं वा कामनी के रसकी वार्ता करूं उसकी बातही सुन कर मेरी यह दशा भई है न जानिये और क्या होय वह कल्याणरूपिणी जिस हृदय में बसे है उस हृदय में दुःख रूप अग्नि का दाह क्यों हो स्त्री तो निश्चय सेती स्वभावही से कोमल चित्त होय हैं मुझे दुःख देने अर्थ चित्त कठोर क्यों भया यह काम पृथिवी में अनंग कहावे हैं तिसके अङ्ग नहीं सो अंग बिनाही मुझे अंग रहित करे है मारे डाले है जो इसके अंग होय तो न जाने क्या करे मेरी देह में घाव नहीं परन्तु वेदना बहुत है मैं एक जगह बैाहूं और मन अनेक जगह भूमे है ये तीन दिन उसे देखेविना मुझे कुशलसे न जाय इसलिये उसके देखनेका उपाय करूं जिससे मेरे शांतिहोय सो सर्व कार्यों में मित्र समानजगतमें और आनन्द ar कारण कोई नहीं मित्रसे सर्व कार्य सिद्ध होंय ऐसा विचार अपना जो प्रहस्त नामा, मित्र सर्व विश्वास का भाजन उसे पवनंजय गद गद बाणी कर कहता भया कैसा है मित्र कनारे हो बैठा है छायाकी मूर्ति ही है पनाही शरीर मानो विक्रियाकर दूजा होरहा है उससे इस भान्ति कहीं हे मित्र त मेरासर्व अभिप्राय For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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