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पद्म
पुराण
॥२८॥
ने भेजे हैं, और अशोक जाति के वृक्षों की नवीन कौंपल लहलहाट करें हैं सो मानों सौभाग्यवती स्त्रियों के रागकी राशि ही शोभे हैं । और वनों में केस अत्यंत फूलरहे हैं सोमानों वियोगनी नायिका के मन के दाह उपजावनेको अग्निसमान हैं दशोंदिशा में फूलोंकी सुगंध रज जिस को मकरन्द कहिये सो पराग कर ऐसी फैलिरही हैं मानों बसंत जो है सो पटवास कहिए सुगंधचूर्ण और वीरता कहिए महोत्सव करे है एक क्षण भी स्त्री पुरुष परस्पर वियोग को नहीं सहार सके हैं इस ऋतु में विदेश गमन कैसे रुचे ऐसी राग रूप वसंत ऋतु प्रगट भई उस समय फागुण शुदि अष्टमि से लेकर पूर्णमासी तक अष्टान्हिका के दिन महा मंगल रूप हैं, सो इन्द्रादिक देव शची श्रादि देवी पूजा के अर्थ नन्दीश्वर द्वीप गये और विद्याधर पूजा की सामग्री लेकर कैलाश गए श्री ऋषभदेव के निर्वाण कल्याणक से वह पर्वत पूजनीक है सो समस्त परिवार सहित अंजनी के पिता राजा महेन्द्र भी गए वहां भगवान की पूजा कर स्तुति कर
और भाव सहित नमस्कार कर सुवर्ण की शिलापर सुखसे विराजे और राजा प्रल्हाद पवनंजय के पिता भी भरत चक्रवर्ती के कराएजे जिन मंदिर तिनकी बंदना के अर्थ कैलाश पर्वत पर गए सो बंदना कर पर्वत पर विहार करते हुए राजा महेन्द्र की दृष्टि में पाए । सो महेंद्र को देखकरप्रीति रूप है चित्त जिन का प्रफुल्लितभए हैं नेत्र जिनके ऐसे जे प्रल्हाद वे निकट पाए तब महेन्द्र उठकर सन्मुख आयकर मिले एक मनोग्य शिलापर दोनों हितसे तिष्ठे परस्पर शरीरादि कुशल पूछनेलगे तब राजा महेन्द्र ने कही।
हे मित्र मेरे कुशल काहेकी क्योंकि कन्या वरभोग्यभई उसके परणावनेकी चिन्तासे चित्त व्याकुल रहे है। | जैसी कन्या है तैसा बर चाहिये ओर बड़ा घर चाहिये कौन को दें यह मन भ्रमें है रावण को परणाइये।
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