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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बक्षस्थल लक्ष्मी का निवास सा वायकुमार को संपूर्ण यौवन घरे देख कर पिता के चित्तमें इनके विवाह पुराण की चिन्ता उपजी कैसा है पिता परंपराय संतान के बढ़ावने की है बांछा जिसके अब यह जहां वायुकुमार परणेगा सो कहिएहै । भरतक्षेत्रमें समुद्रसे पुर्व दक्षिण दिशाके मध्यदन्तीनामा पर्वत जिसके ऊंचे शिखर आकाशलगरहे हैं नानाप्रकार वृक्ष औषधि तिन संयुक्त और जलके नीझरनेझरे हैं जहांतहां इंद्र तुल्य राजामहेंद्रविद्याधरउसने महेंद्रपुरनगरबसाया इसराजाकेहृदयवेगा राणीउसके अरिरिदमादिसौपुत्रमहागुण वानऔर अंजनीसुंदरीपुत्रीसोमानौत्रैलोक्यकी सुंदरीजेस्त्री तिनकेरूप एकत्रकरबनाईहै नीलकमल सारिखे हैं नेत्र जिसकेकामके वाणसमान तीक्ष्णदुरदर्शी कर्णान्तक कटाक्ष और प्रशंसा योग्यकर पल्लवरक्तकमल समान चर्ण हस्तीके कुम्भस्थल समान कुच और केहरीसमान कटि सुन्दर नितंब कदलीस्तंभ समान कोमलजंघा शुभलक्षण प्रफुल्लित मालती समान मृदु बाहुयुगल गंधर्वादि सर्व कलाकी जाननहारी मानों साक्षात् सरस्वतीही है और रूपकर लक्ष्मीसमान सर्वगुण मंडित एक दिवस नव यौवनमें कंदुक क्रीड़ा करती भ्रमण करती सखियों सहित रमती पिताने देखी सो जैसे सुलोचनाको देखकर राजा अकंपनको चिन्ता उपजी थी तैसे अंजनीको देख राजा महेन्द्रको चिन्ता उपजी तब इसके बर ढूंढनेमें उद्यमी हुए संसारविषे माता पितावों को कन्या दुखका कारणहै जे बड़े कुलके पुरुषहैं उनको कन्या की ऐसी चिन्ता रहे है यह मेरी कन्या प्रशंसा योग्यपति को प्राप्तहोय और बहुत काल इनका सौभाग्य रहे और कन्या निर्दुषण रहे राजामेंहदने अपने मंत्रियों से कहा जो तुम सर्व बस्तु में प्रवीणहो कन्या | योग्य श्रेष्ठ बर मुझे बतावो तब अमरसागर मन्त्री ने कहा यह कन्या राक्षसोंका अधीश जो रावण ! For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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