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पद्म
१२६४॥
कव शिवपदको प्राप्त होऊगा इस भांति निरन्तर ध्यानकर निर्मल भयाहै चित्त जिसका उसके कर्म कैसे रहें भयकर भागजाय कैयक विवेकी सात अाठ भवमें मुक्ति जायहें कैयक दोतीन भवमें संसार समुद्र के पार होयह कैयक चरमशरीरी उग्रतपकर शुद्धोपयोगके प्रसादसे तदभव मोक्ष होप हैं जैसे कोई मार्ग का जाननहारा पुरुषशीघ्र चले तो शीघ्रही स्थानकको जाय पहुंचे और कोई धीरेधीरे चले तो घने दिन में जाय पहुंचे परंतुमार्गचले सो पहुंचेही और जो मार्गहीन आने और सोसो योजन चले तोभी भ्रमता ही रहे स्थानकको न पहुंचे तैसे मिथ्यादृष्टि उग्रतपकरें लोभी जन्ममरण वर्जित जो अविनाशीपद उसे न प्राप्त होयं संसार बनहीमें भ्रमे नहीं पायाहै मुक्किा मार्ग जिन्होंने कैसा है संसारबन मोहरूप अंध कारकर पाछादितहे और कषायरूप सोकर भराहै जिस जीवके शील नहीं ब्रत नहीं सम्यक्तनहीं स्याम नहीं वैराग्य नहीं सो संसार समुद्रको कैसे तिरे जैस विन्ध्याचल पर्वतसे चला जो नदीका प्रवाह उस कर पर्वत समान ऊंचे हाथी वहजांय तहां एक सुस्साक्यों न बहे तैसे जन्म जरा मरणरूप भूमणको धरे संसाररूप जो प्रवाह उसविषे जे कुतीर्थी कहिये मिथ्यामार्गी अज्ञान तापसहै वेई डूबे हैं फिर उनके भक्तोंका क्या कहना जैसे शिलाजल विषे तिरणे शक्त नहीं तैसे परिग्रह के धारी कुदृष्टि शरणागतों को तारने समर्थ नहीं औरजे तत्वज्ञानी तपकर पापोंके भस्म करणहारे हलवे होयगएहैं कर्म जिनके वे उपदेश थकी प्राणियोंको तारने समर्थ हैं यह संसार सागर महा भयानक है इसमें यह मनुष्य क्षेत्र रत्नदीप समानहै सो महा कष्टसे पाइये है इस लिये बुद्धिवन्तोंको इस रत्नदीप विषे नेमरूप रत्नग्रहणे अवश्य योग्यहै यह प्राणी इस देहको तजकर परभव विषे जायगा और जैसे कोई मूर्ख तागाके अर्थ
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