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पद्म
॥२६॥
नहीं तिन देशनका त्याग अनर्थ दण्ड का त्याग ये तीनगुणव्रत और सामायिक प्रोषधोपवास अतिथि संविभाग भोगोपभोग परिणाम ये चारशिक्षाबत ये बारहवतहें अबइन ब्रतोंके भेदसुनोजैसे अपना शरीर आप को प्याराहै तैसा सबको प्याराहै असा जान सर्वजीवोंकी दयाकरनी उत्कृष्ट धर्म जीव दयाही भगवान ने कहाहैजे निर्दई जीव. तिनके रंचमात्रभी धर्म नहीं और जिसमें परजीवको पीड़ा होय सो वचन न कहना पर वाधाकारी वचन सोई मिथ्या और परउपकाररूप वचन सोई सत्य और जे पापी चोरीकरें पराया धन हरें हैं वे इस भवमें बध बन्धनादि दुखपाबे हैं कुमरण से मरे हैं और परभव नरक में पड़े हैं नानाप्रकार के दुःख पावे चोरी दुःखका मूलहै इसलिये बुद्धिमान सर्वथा पराया धन नहीं हरेहैं सो जिसकर दोनोंलोक बिगडें उसे कैसे करें और सर्पणी समान परनारीको जान दूरही से तजो यह पापनी परनारी काम लोभ के वशीभूत पुरुषकी नाश करनहारी है सर्पणी तो एक भवही प्राण हरे हैं और पर नारी अनन्त भव प्राण हरॆ हैं कुशील के पाप से निगोद में जाय हैं सो अनन्त जन्म मरण करे हैं और इसही भव में मारना ताडनादि अनेक दुःख पावे हैं यह परदारा संगम नरक निगोद के दुस्सह दुःख का देनहारा है जैसे कोई पर पुरुष अपनी स्त्री का पराभव करे तो आप को बहुत बुरा लगे अति दुःख उपजे तैसेही सकल की व्यवस्था जाननी और परिग्रह का पर माण करना बहुत तृष्णा न करनी जो यह जीव इच्छाको न रोके तो महा दुखी होय यह तृष्णाही दुःखका मूल है तुष्पा समान और ब्याधि नहीं ॥ इसके ऊपर एक कथा है सो सुनो एक भट्ट दूजा कंचन ये दोय पुरुषथे तिनमें भद्रफलादिक का बेचनहारा सो एक दीनार मात्र परिग्रहका प्रमाण करता भया एक दिवसमार्ग में दीनारोंका बटवा पड़ा ||
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