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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण म पा कुटिल कुबुद्धिरोबध्यानी मरकर नरकमें प्राप्त होयहें जहां विक्रीयामई कुहाडे तथा खडग चक्र करोंत ! और नानाप्रकारके विक्रयामई शस्त्र तिनसे खरड २ कीजिएहै फिर शरीर मिल जायहै श्रायु पर्यन्त दुस भोगेहें तीचंण हैं जौंच जिनकी ऐसे मायामई पीते तन विदारे हैं तथा मायामई सिंह व्याघ्र स्वानसर्प अष्टापद ल्याली वीळू तथा और प्राणियोसे नानाप्रकारके दुख पावे हैं नरकके दुःखको कहां लग बरणन करिए और जे मापाचारी प्रपंची विषियाभिलाषी हैं वे प्राणी तियंचगत को प्राप्त होय. वहां परस्पर बध और नानाप्रकारके शम्रन की घातसे महा दुःख पावेहें तथा बाहन तथा प्रति भार का लादना शीत उष्ण क्षुधा तृषदिकर अनेक दुख भोगवहें यह जीवभव संकटविषेभ्रमता स्थल विषेजल विषगिरिविषे तरुविष औरगहनवनविषेभनेक गैरसूताएकेंद्रीवेइंद्री तेइंदी चौइंद्रीपचंदीअनेक पर्यायमें अनेक जन्ममरण किये जीव अनादि निधनहे इसको श्रादिअन्त नहीं तिलमात्रभी लोकाकाश विषे ऐसा प्रदेश नहीं जहां संसार भवनविषे इस जीवने जन्ममरण न किएहों औरजेप्राणी निगर्व हैं कपटरहितहैं स्वभाव ही कर संतोषी हैं वे मनुष्य देहको पावेहें सो यह नरदेह परम निर्वाण सुखका कारण उसे पायकर भी जे मोहमदकर उन्मत्तकल्याणमार्गको तजकर षणमात्रमें सुखके अर्थ पाप करे हैं ते मूर्ख हैं मनुष्यभी पूर्वकर्मके उदयसे कोई आर्यखंड विषे उपजे हैं कोई म्लेचखण्ड विष उपजे हैं तथा कोई धनाढ्य कोई अत्यन्त दरिद्री होय हैं केई कर्मके प्रेरे अनेक मनोरथ पूर्ण करे हैं केई करसे पराए घरोंमें प्राण पोषण करे हैं केई कुरूप केई रूपवान केई दीर्घ श्रायु कई अल्प श्रायु केई लोकोंको बल्लभ केई अभानने केई सभाग केई अभाग केई औरोंको प्राज्ञा देवें केई औरनके श्राज्ञाकारी केई यशस्वी केई अपयशी केई शूर केई । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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