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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kallassagarsuri Gyanmandir ॥२२॥ राम नीति के मार्ग से विनती करुहूं इसक मारने में असमर्थ नहीं हूं ऐसे गर्भ और क्रोध के भरे पुत्रके, वचन सुनकर सहसार ने कहाकिहे पुत्र तूशीघ्रता मतकर अपने जेश्रेठमंत्री हैं जिनसे मन्त्र विचारजेविना बिचारे कार्य करें हैं तिनके कार्य विफल होय हैं अर्थकी सिद्धिका निमित्त केवल पुरुसार्थ नहीं है ।जैसे कृषिकर्म का है प्रयोजन जिसके ऐसा जो किसान उसके मेघकी वृष्टि विना क्या कार्य सिद्धहोय और जैसे चटशाला में शिष्य पढ़े हैं सबही विद्याको चाहे हैं परन्तु कर्म के वश से किसी को विद्या सिद्धि होयहै किसीको सिद्धि न होय है इसलिये केवलपुरुषार्थसेही सिद्धि न होय अबभी रावणसे मिलापकर जब वह अपना भया तब तू पृथिवीका निःकंट राज्य करेगा और अपनी पुत्री रूपवती नामा महा रूपवती रावणको परणाय इसमें दोष नहीं यह राजावोंकी रीतिही है पवित्र है बुद्धि जिनकी ऐसे पिताने इन्द्र कोन्याय रूप वार्ता कही परन्तु इन्द्रके मनमें न आई क्षणमात्रमें रोसकर लाल नेत्र होगये क्रोधकर पसेव प्राय गया महा क्रोधरूप बाणी कहताभया हे तात मारने योग्य वह शत्रु उसे कन्या कैसे दीजे ज्यों२ | उमर अधिक होय त्यों त्यों बुद्धि क्षय होयहै इसलिये तुम योग्य बात न कही में कहो किससे घाटहूं मेरे कौन वस्तुकी कमी है जिससे तुमने असे कायर वचन कहे, जिस सुमेरुके पायन चांद सूर्य लग रहे सो उतंग सुमे रु कैसे और कौन नवे जो वह रावण पुरुषार्थकर अधिक है तो में भी उससे अत्यन्त अधिक हूं और देव उसकेअनुकूल हैं तो यह वात निश्चय तुम कैसे जानी और जो कहोगे उसने बहुत बैरी जीते हैं तो अनेक मृगन को हतनेहारो जो सिंह उसे क्या अष्टापद न हने हे पिता शस्त्रन के सम्पात कर उपजा है अग्निका समूह जहां असे संग्राममें प्राण त्यागना भलाहै परन्तु काहूं से नम्रीभूत होना बड़े पुरुषों को For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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