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पद्म
॥२२२॥
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उपरम्भाने कहा तब सखी विचित्रमाला कहतीभई हे देवी एती बात क्या कहो हमतो तुम्हारे आज्ञाकारी जो मन वांछित कार्य को सोही करें मैं अपने सुखसे अपनी स्तुति क्या करूं अपनी स्तुतिकरना लोक में अति निन्द्य है बहुत क्या कहूं मोहि तुम मूर्त्तिवती साक्षात् कार्यकी सिद्धि जानो मेरा विश्वास कर तुम्हारे मनमें जो हो सो कहो हे स्वामिनी हमारे होते तोहिखेद, कहा तब उपरम्भा निश्वास लेकर कपोल विषेकर घर मुखमेंसे न निकसते जो वचन उसे बारम्बार प्रेरणा कर बाहिर निकासी भई हे सखी बाल पनेही से लेकर मेरामन रावण में अनुरागी है में लोक विषे प्रसिद्ध महा सुन्दर उसके गुण अनेक बार सुने हैं सो मैं अन्तरायके उदय कर अबतक राक्य के संगमको प्राप्त न भई चितमें परम प्रीति धरूंहूं और
प्राधिका मेरे निरन्तर पछतावा रहे है है रूपिणी में जानूहूं यह कार्य प्रशंसा योग्य नहीं नारी दूजे नरके संयोग से नरक में पड़े है तथापि में मरणा को सहिवें समर्थ नहीं इसलिये हे मिष्ट भाषिणी मेस उपाय शीघ्र कर अब वह मेर मन का हरणहारा चिकट आया है किसी भांति प्रसन्न होय मेरा उस से संयोग करले मैं तेरे पायन पडूंहूं ऐसा कहकर वह भामिनी पाय पस्ने लगी तब सखीने सिरयांभ लिया. और यह कही कि हे स्वामिनी तुम्हारा कार्य चणमात्र में सिद्ध करूं यह कहकर दूती घरसे निकस जाने है सकल इन बातनकी रीति अति सूक्ष्म श्याम वस्त्र पहरकर आकाश के मार्ग रावण के डेरे में श्रई राज लोकमें गई द्वारपालोंसे अपने आगमनका वृतान्त कहकर रावणके निकट नाय प्रणाम किया आशा पास बैठकर विनती करती भई हे देव दोषके प्रसंगाते रहित तुम्हारे सकल गुणोंकर यह सकल लोक व्याप्त हो रहा है तुमको यही योग्य प्रति उदारहे विभव तुम्हारा इस पृथ्वीमेंस बढीको तुम करोडो तुम सब
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