SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पा ॥२९॥ करतीभई जे शीतल कोमल मेक्की धारा वे पंथीन को बाण भावको प्राण भई मर्म की विदारनारी धाराओं के समूह कर भेदागया है हृदय जिनका ऐसे पंथी महान्याकुल हुये मानों तीक्षण चक्र, कर विदारे गये हैं नवीन नो वर्षाका जब उसकर जब्ताको प्राप्तभए पंथी क्षणमात्र में चित्राम कैसे होगये और जानिये कि चीर सागर के भरे मेघसो गायन के उदर विषेपेठे हैं इसलिये निरन्तरही दुग्यधारा वर्षे हैं वर्षा के समय किसान कृषिकर्मको प्रवर्ते हैं रावण के प्रभावकर महा धमके धनी होतेभये रापण सबही प्राषियोंको महा उत्साहका कारण होता भयो गौतम स्वामी राजा श्रेषिकसे कहे हैं कि हे श्रेषिक जे पुण्याधिकारी हैं तिनके सौभाग्य का वर्णन कहाँ तक करिये इन्द्रीवर कमल सारिखा श्याम रावण स्त्रियों के चित्तको अभिलाषी करतासंता मानों साक्षात् वर्षा कालका स्वरूपही है गम्भीरहै ध्वनि जिस की जैसा मेघ गाजे तैसा रावण गाजे सो रावणकी आज्ञासे सर्व नरेद्र प्राय मिले हाथ जोड़ नमस्कार करते भये जो राजावों की कन्या महा मनोहरथी सो रावणको स्वयमेव बरतीभई वे स्त्री रावण को बरकर अत्यन्त क्रीड़ा करती भई जैसे वर्षा पहाड़को पायकर अति वरसे कैसी है वर्षा पयोधर जे मेघ तिनके समूहकर संयुक्त है और कैसी है स्त्री पयोधर जे कुच तिनकर मण्डित है कैसा है रावण पृथिवी के पालनेको समर्थ है वैश्रवण यक्षका मानमर्दन करनहारा दिग्विजयको चढ़ा समस्त पृथिवीको जीते सो उसे देखकर मानो सूर्य लज्जा और भयकर ब्याकुल होय दवगया भावार्थ वर्षाकाल में सूर्य मेघ पटल कर अच्छादित हुआ और रावणके मुख समान चन्द्रमाभी नाही सो मानों लज्जा कर चन्द्रमाभी दब गयो क्योंकि वर्षाकाल में चन्द्रमाभी मेघमालाकर श्राच्छादित होयहै और तारेभी नजर नहीं आवे हैं For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy