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पद्म लोकनकी भीड़ देखी और पशु बन्धे देखे तब दया भाव कर संयुक्त होय यज्ञ भूमिमें उतरे वहां जाय पुराण करमरुतसे कहनेलगे हे राजा!जीवनकी हिंसागितकाही बारहै तैंने यह महापापका कार्यक्यों रचा है ॥२०४॥
तव मरुत कहताभया यह सम्बर्त ब्राह्मण सर्व शास्त्रोंके अर्थ विषे प्रवीण यज्ञका अधिकारीहै यह सब जानेहै इससे धर्मचर्चा करों यज्ञकर उत्तम फल पाइयेहै तब नारद यज्ञ करावनवारेसे कहते भए अहो मानव तैंने यह क्या कर्म प्रारम्भाहै यह कर्म सर्वज्ञ जो बीतराग तिन्होंने दुःखका कारण कहाहै तब संवर्तब्राह्मण कोप कर कहताभया अहो अत्यंत मूढता तेरी तू सर्वथा अमिलती बात कहेहै तैंने कोई सर्वज्ञ रागवर्जित बीत राग कहा सो जो सर्वज्ञ बीतराग होय सोवक्ता नहीं और जो वक्ताहै सो सर्वज्ञ बीतराम नहीं और अशुद्ध मलिनजे जीव उनका कहा बचनप्रमाण नहीं और जो अनुपम सर्वज्ञहै सो कोई देखनेमें नहीं आताइस लिये वेद अकृत्रिमहै वेदोक्त मार्ग प्रमाणहै वेद विषेशूद्र बिना तीन वर्णों को यज्ञ कहाहै यह यज्ञ अर्व धर्म है स्वर्गके अनुपम सुख देवे है वेदीके मध्य पशुओंका बध पापका कारण नहीं शास्त्रोंमें कहाजो मार्गसो कल्याणही का कारण है और यह पशुओंकी मृष्टि विधाता ने यज्ञ हीके अर्थ रची है इस लिये यज्ञमें पशुके बधका दोष नहीं ऐसे संवर्त ब्राह्मण के विपरीत बचन सुन नारद कहनेलगे हे विप्र! तैंने यह सर्व अयोग्य रूपही कहाहै कैसा है तू हिंसा मार्गकर दूषित है अात्मा तेरा अब तू ग्रन्यार्थ का यथार्थ भेद सुन तू कहे सर्वज्ञ नहीं सो यदि सर्वथा सर्वज्ञ न होय तो शब्द सर्वज्ञ अर्थसर्वज्ञ बुद्धि सर्वज्ञ यह तीन
भेद काहे को कहे जो सर्वज्ञ पदार्य है तो कहने में आवे है जैसे सिंह है तो चित्राम में लिखिये ।। है इस लिये सर्व का देखने हारा सर्व का जानने हारा सर्वज्ञ है सर्बज्ञ न होय तो अमूर्तीक अतेंद्रीय
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