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पुराण
.१८३॥
! तुम यद्यपिअत्यन्तत्यागीहो महाविनयवान बलवानहो महाऐश्वर्यवानहो गुणकरशोभितहो तथापि मेरा | दर्शन तुमको वृथामतहोय में तेरेसे प्रार्थना करूंहूं तु कुछ मांगयह मैं जानूहूं कि तृ याचकनहीं परंतु मैं अमोघ विजियानामा शक्ति विद्या तुझे दूंहूं सो हे लंकेश तु ले हमारा स्नेह खंडन मतकर हे रावण किसीकी दशा एकसी कभी नहीं रहती संपतिके अनन्तर विपति और विपतिके अनन्तर संपति होतीहै जो कदा चित् मनुष्यशरीरहै और तुझपर विपति पड़े तो यह शक्ति तेरे शत्रुकी नाशनेहारी और तेरी रक्षा की करनेहारी होयगी मनुष्योंकी क्या बात इससे देवभी डेरें, यह शक्ति अग्नि ज्वालाकर मंडित विस्तीर्ण
शक्ति की धारनेहारीहै तब रावण धरणेंद्रकी प्राज्ञा लोपनेको असमर्थ होता हुआ शाक्त को ग्रहण | करताभया क्योंकि किसीसे कुछ लेना अत्यन्त लघुताहै सो इस बातसे रावण प्रसन्न नहीं भया रावण | अति उदारचित्त है तब घरणेंद्र से रावणने हाथ जोड़ नमस्कार किया धरणेंद्र श्राप अपने स्थानक गए। कैसेहैं धरमेंद्र प्रगट है हर्ष जिनके रावण एक मास कैलाशपर रहकर भगवानके चैत्यालयों की महाभक्तिसे पूजाकर और बाली मुनिकी स्तुतिकर अपने स्थानक गए। ___बाली मुनिने जो कछुइक मनके क्षोभसे पाप कर्म उपार्जाथा सो गुरुवोंके निकट जाय प्रायश्चित लिया शल्यदुरकर परम सुखी भए । जैसे विष्णुकुमार मानने मुनियोंकी रक्षानिमित्त वलिकापराभाव कियाथा और गुरुसे प्रायश्चित लेय परमसुखी भएथे तैसे बाली मुनिने चैत्यालयोंकी और अनेक जीवों की रक्षा निमित्त रावणका पराभव किया कैलाश थांबा फिर गुरुपे प्रायश्चित लेय शल्य मेट परमसुखी भए चारित्रसे गुप्तिसे धर्म से अनुप्रेचासे सुमातसे परीषहोंके सहनेसे महासंवरको पाय कर्मोंकी निर्जरा
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