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पृथिवी विषे जो जो विद्याधरों की कन्या रूपवन्ती थीं रावणने वे समस्त अपने पराक्रम से परणी पुरा नित्यालोक नगर में राजा नित्यालोक राणी श्रीदेवी तिनकी रत्नावली नामा पुत्री उसको परण कर
रावण लङ्का को प्रावते थे सो कैलाश पर्वत ऊपर आय निकसे तहां के जिनमन्दिरोंके और वाली मुनि के प्रभावसे पुष्पक विमान आगे चल न सका विमान मनके वेग समान चंचल है जैसे सुमेरुके तटको पाय कर वायु मण्डल थंभे तैसे विमान थंभा तब घण्टादिकका शब्द रहित भया मानो विलषा होय मौनको प्राप्तभया तब रावण विमानको अटका देख मारीच मन्त्री से पूछते भये कि यह विमान कौन कारणसे अटका तब मारीच सर्व वृत्तान्तमें प्रवीण कहताभया हे देव सुनो यह कैलाश पर्वतहै यहां कोई मुनि कायोत्सर्ग तिष्ठे है शिलाके ऊपर रत्नके थंभ समान सूर्य के सन्मुख ग्रीषममें आतापन योग घर तिष्ठे है अपनी कांति से सूर्यकी कांतिको जीतता हुवा विराजे है यह महामुनि धीरवीरहै महाघोर वीर तपको धरै है शीधही मुक्तिको प्राप्त हुवा चाहे है इसलिये उतरकर दर्शनकरो आगेचलो या विमान पीछे फेर कैलाश को छोड़कर और मार्ग होय चलो जो कदाचित हटकर कैलाशके ऊपर होय चलोगे तो विमान खण्ड खण्ड होजायगा यह मारीच के वचन सुनकर राजा यमका जीतनेहारा रावण अपने पराक्रम से गर्वित होकर कैलाश पर्वतको देखता भया पर्वत मानो व्याकरणही है क्योंकि नाना प्रकारके धातुवों से भरा है और सहस्रों गुणों से युक्त नाना प्रकारके सुवर्ण की रचना से रमणीक पद पंक्तियुक्त
नाना प्रकार के स्वरों कर पूर्ण है । ऊंचे तीखे शिखरोंके समूह कर शोभायमान है अाकाशसे लगा है | निसरते उछलते जे जलके नीझरने तिनकर प्रकट हंसे ही हैं कमल आदि अनेक पुष्पोंकी सुगन्ध सोई ।।
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