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जिसका तब सुमाली ननः सिद्धेभ्यः वह मन्त्र पढ़कर वाहते भए हे पुत्र यह कमलोंके बन नहीं इस पुराण
पर्वतके शिखर पर पदमरागमणि मई हरिषेण चक्रवर्तीके कराए हुए चैत्यालय, जिनपर निर्मलध्वजा ॥१५४
फरहरे हैं । और नाना प्रकार के तोरणोंसे शोभे हैं हरिषेण महा सज्जन पुरषोत्तम थे जिनके गुण कहनेमें न आहे पुत्र तू उतरकर पवित्र मन होकर नमस्कारकर तब रावणने बहुत बिनयसे जिन मंदिरों को नमस्कार किया और बहुत आश्चर्य को प्राप्त भया और सुमाली से हरिषेण चक्रवर्ति की कथा पूछी हे देव आपने जिसके गुण वर्णन किये उसकी कथा मुझ से कहो तब सुमाली कहे है हे दशानन तैं भली पूछी पाप नाश करनहारा हरिषेण का चरित्र सो सुन । कंपिल्या नगर में राजा सिंहध्वज उनके राणी वा जोमहा गुणवती सौभाग्यवती राजाके अनेक राणीथी परन्तु राणी वा उनमें तिलक थी उसके हरिषेण चक्रवर्ति पुत्र भए चौसठ शुभ लक्षणों से युक्त पाप कर्म के नाशने हारे | इनकी माता वप्रा महा धर्मवती सदा अष्टानिका के उत्सवमें रथ यात्रा किया कर इसकी सौकन रानी महालक्ष्मी सौभाग्यके मदसे कहती भई कि पहिले हमारा ब्रह्म रथ नगरमें भ्रमण हुश्रा करेगा पीछे तुम्हारा । यह बात सुन राणी वा हृदय में खेद भिन्न भई मानों बज्रपातसे पीड़ी गई उसने ऐसा प्रतिज्ञा करी कि हमारे वीतरागका रथ अाइयों में पहले न निकसेगा तो मैं आहार नहीं करूंगी ऐसा कहकर सर्व कार्य छोड़ दिया शेक से मुख मुरझाय गया अश्रुपात की बून्द श्रांखोंसे डालती हुईं माता को देखकर हरिषेण ने कहा हे माता अब तक तुमने स्वपने मात्र में भी रुदन न किया था अब यह अमंगल कार्य क्यों करो हो तब माता ने सर्व वृतान्त कहा सुनकर हरिषेण ने मनमें
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