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पुरास
१०५६।
अथानन्तर अच्युतस्वर्गका प्रतेन्द्र सीता का जीव स्वयंप्रभ नामाअवघि कर विचारता भया, रामका" और आपका परम स्नेह अपने अनेक भव और जिनशासन का महात्म्य और रामका मुनिहोना और कोटि शिला पर ध्यान धर तिष्ठना फिर मन में विचारी वे मनुष्यों के इन्द्र पृथिवीके आभूषण मनुष्य लोक विषे मेरे पति थे में उनकी स्त्री सीतो थी देखो कर्म की विचित्रता में तो बतके प्रभाव से स्वर्गलोक पाया
और लक्ष्मण गम का भाई प्राण से प्रिय सो परलोक गया, राम अकेले रह गए जगत् के अाश्चर्य के करणहारे दोनों भाई बलभद्र नारायण कर्म के उदय से बिछुरे श्रीराम कमलसारिखे नेत्रजिनके शोभायमान हल मूसलके धारक बलदेव महाबली सो बासुदेव के वियोग से जिनदेवकी दीक्षाअंगीकार करतेभये राज अवस्था में तो शस्त्रोंकर सर्व शत्रुजीते फिर मुनिहोय मन इन्द्रिय जीते अब शुक्लध्यानधारकर कर्म शत्रु को जीताचाहे हैं असा होय जोमेरी देव मायाकर कछुइक इनका मन मोह में आवेवह शुद्धोपयोग सेच्युतहोय शुभोपयोगमें प्राय यहां अच्युतस्वर्ग में श्रावें मेरे इनके महाप्रीति है में और वे मेरुनन्दीश्वरादिककी यात्रा
कर और बाई ससागरपर्यन्त भेले रहें। मित्रतावढ़ावें और दोनों मिल लक्ष्मणकोदेखेंयह विचारकर सीताका || जीव प्रत्येन्द्र जहां राम ध्यानारूढथे वहांबाया इनको ध्यान से च्युत करवे अर्थ देवमायारची, बसन्त ऋतु । वन में प्रकट करी नानाप्रकार के फूल फूले और सुगन्ध वायुवाजने लगी, पक्षी मनोहर शब्द करने लगे
और भ्रमर गुन्जार करे हैं कोयल बोले हैं मैंना, सूवा, नाना प्रकार की ध्वनि कर रहे हैं अांव मौर आये भ्रमरोंकर मण्डितसोहे हैं कामके बाणजे पुष्प तिनकी सुगन्धताफैल रहीहै और कर्णकार जातिकबृक्ष फले । । हे तिन कर वन पीत होरहाहै सो मानों वसन्तरूपराजा पीतम्बरकर क्रीडा कररहाहै और मौलश्री की वर्षा
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