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पुराण
पन आयपडा इसलिये देर लगी तब चन्द्राभाने हंसकर कही जो परस्त्रारत होय उसकी बहुत मानता करनी ११००६
तब राजाने क्रोधकर कही तुम यह क्या कही जे दुष्ट व्यभिचारी हैं तिनका निग्रह करना जे परस्त्री का स्पर्श करें संभाषण करें वे पापी हैं सेवन करें तिनकी क्या बात जे ऐसे कर्म करें तिनको महादण्ड दे नगर से काढ़ने जे अन्याय मार्मी हैं वे महापापी नरक में पड़े हैं और राजावों के दण्ड योग्य हे तिनका मान कहां, तब राणी चन्द्रामा राजाको कहती भई हे नृप कि यह परदारासेवन महा दोष हे तो तुम
आपको दण्ड क्यों न देवो तुमही परदारारत होतो औरों को क्या दोष जैसा राजा तेसी प्रजा जहां राजा हिंसक होय और व्यभिचारी होय वहां न्याय कैसा इसलिये चुप होयरहो जिस जलकर वीज उगे और जगत् जीवे सो जलही जो जलायमारे तो और शीतल करणहारा कौन ऐसे उलाहना के वचन चन्द्रामा के सुन राजा कहता भया हे देवी तुम कहो हो सो ही सत्य है बारम्बार इसकी प्रशंसा करी और कहा में पापी लक्ष्मा रूप पाश कर बेढा विषय रूप कीच में फंसा अब इस दोष से कैसे छुटुं राजा ऐसा विचार करे है और अयोध्याके सहश्री नामा वन में महासंघ सहित सिंहपाद नामा मुनि अाए राजा सुनकर रणवास सहित और लोकों सहित मुनिके दर्शन को गया, विधिपूर्वक तीन प्रदक्षिणा देय प्रणाम कर भूमि में बैठा जिनेन्द्र का धर्म श्रवणकर भोगों से विरक्त होय मुनि भया और राणी चन्द्राभा बड़े राजा की बेटी रूपकर अतुल्य सो राज्य विभति तज अायिका भई दुर्गति की वेदना का है अधिक भय जिसको और मधु का भाई कैटभ राजको विनाशीक जान महा व्रतधर मुनि भया दोनोंभाई महा तपस्वी पृथ्विी विषे बिहार करते भए और सकल स्वजन परजनके नेत्रोंको अानन्दका कारण मधुका पुत्र कुल
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