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पद्म । पुराण 188७॥
घने लोक विवेकी साधु सेवा में तत्पर देखो जो सीता अपनी मनोग्यता कर देवांगनावां की शोभा को जीतती थी सो तपकर ऐसी हो गई मानों दग्ध भई माधुरी लता ही है महावैराग्य कर मण्डित अशुभ । भाव कर रहित स्त्री पर्याय को प्रतिनिंदती महातप करती भई धर कर घसरे होय रहे हैं केश जिस के ।
और स्नान रहित शरीरके संस्कार रहित पसेव कर युक्त गात्र जिस में रज प्राय पड़े सोशरीर मलिन होय रहा है बेला तेला पक्ष उपवास अनेक उपवास कर तनु क्षीण किया दोष टार शास्त्रोक्त पारणा करे । शीलके गुण व्रतकेगुणोंमें अनुरागिणी अध्यात्म के विचार कर अत्यन्त शांत होयगया है चित्त जिसका। वश कीये हैं इन्द्रिय जिसने ओरों से न बने ऐसा उग्रतप करती भई मांस और रूधिर कर वर्जित भया । है सर्व अंग जिसका प्रकट नजर अावे हैं अस्थि और नसा जाल जिसके मानों काठकी पुतली ही है सूकी। नदी समान भासती भई बैठ गय हैं कपोल जिसके जड़ा प्रमाण धरती देखती चलेमहादयावन्ती सौम्य है। दृष्टि जिसकी तप का कारण देह उसके समाधान के अर्थ विधिपूर्वक भिक्षा बृत्ति कर अाहार करे। ऐसा । तप कीया कि शरीर और ही होगया अपना पराया कोई न जाने सो जो यह सीता है इसे ऐसा तप। करती देख सकल भार्या इसही की कथाकरें इस ही की रीति देख और आदरें सबोंमें मुख्यमई इसभांति । बासठ वर्ष महातप कीये और तेतीस दिन आयु के बाकी रहे तब अनशन बतधार परमश्राराधना श्राराध जसपुष्पादिकउछिष्ठमाथरेकोतजी तैसेशरीर कोतजकर अच्युतस्वर्ग में प्रतेन्द्रभई,गौतमस्वामी कहहैं.हे श्रेणिक जिनधर्मका माहात्म्य देखोजोयह प्राणिस्त्रोपर्यायविषे उपजीथीसोतपके प्रभावकर देवोंका प्रभु होय सोता.अच्युत स्वर्ग विषे प्रतेन्द्र, भई वहां मणियों की कांति कर उद्योत कीयाहै अाकाश विषे जिसने असे
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