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पद्म
परास
६६१ ।।
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कायर स्वभाव मेघके शब्द से डरती सो अब महा तपस्विनी भयंकरवन में कैसे भयको न प्राप्त होगी नितंबीके भार से आलस्य रूप गमन करणहारी महा कोमल शरीर तप से बिलाय जायगी कहां यह कोमल शरीर और कहां यह दुर्धर जिनराज का तप सो अति कठिन है जो दाह बड़े २ वृच्चों को दाहे उसकर कमलनी की कहां बात, यह सदा मनवांबित मनोहर याहार की करणहारी अव कैसे यथालाभ भिक्षा कर कालच्चेप करेगी यह पुण्याधिकारणी रात्रि में स्वर्ग के विमान समान सुन्दर महिल में मनोहर सेज पर पौढ़ती और बीण बांसुरी मृदंगादि शब्द कर निद्रा लेती सो अब भयंकर न में कैसे रात्रि पूर्ण करेगी बन तो डाभकी तीक्षण प्रणियों कर विषम और सिंह व्याघ्रादिके शब्द कर डरावना देखो मेरी भूल जो मूढ़ लोकों के अपवाद से मैं महा सती पतिव्रता शीलवंती सुन्दरी मधुर भाषिणी घरसे निकासी इस भांति चिंताके भारकर पीडित श्रीराम पवनकर कंपायमान कमल समान कंपायमान होते भये फिर केवली के बचनं चितार धीर्य घर धांसू पुंछ शोक रहित होय महा बिनकर सीताको नमस्कार किया लक्ष्मण भी सौम्य है चित्त जिसका हाथ जोड़ नमस्कार कर राम सहित स्तुति करता भया भगवती धन्यतुं सती बन्दनीक है सुन्दर चेष्टा जिसकी जैसेवरा मुमेरु को धारे तैसे तू जिनराजका धर्म धारे है तैने जिन बचनरूप अमृत पिया उसकर भव रोग निवारेगी सम्यक्त ज्ञान रूप जहाजकर संसार समुद्र को तिरेगी जे पतित्रता निर्मल चित्तकी धरण हारी हैं तिनकी . यही गति है अपना आत्मा सुधारें और दोनों लोक और दोनों कुल सुधारें पवित्रचित्तकर ऐसी क्रिया दरी हे उत्तम नियमकी धरणहारी हम जो कोई अपराध कियाहोय सो क्षमा करियो संसारी जीवों
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