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मुंबई के जैन मंदिर
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कर दीक्षा लेने के समाचार अपने चाचा श्री सीताभाई तक पहुँचाये। जिसे सुनकर चाचा श्री सीताभाई अवाक् रह गये । नही चाहते हुए उन्होंने अपने भाई के पुत्र श्री मोहनभाई को दीक्षा लेने की भारी मन से स्वीकृति प्रदान कर दी । श्री मोहनभाई ने कुमार छात्रावास में अपने १९ वर्ष की आयु में वि.सं. १९९८ फागुण सुदी पंचमी को गुजरात के नरसंडा में जैन मुनिश्री विकासविजयजी के पास जैन भागवती दीक्षा ग्रहण कर ली । जैन धार्मिक परम्परानुसार जैन दीक्षा ग्रहण के बाद श्री मोहनभाई का नाम बदल कर जैन मुनि श्री इन्द्रविजय रखा गया। यह पहली परमार क्षत्रिय समाज के युवक श्री मोहनभाई को जैन दीक्षा दी थी, तो सालपुरा का नाम आपका एवं माता पिता का नाम इतिहास में अमर बन गया ।
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विनय, विवेक, विनम्रता, सदाचार, संयम साधना के कारण इस मुनिने जैन धार्मिक क्षेत्रमें धीरे धीरे अपने पॉव पसारने के साथ जमाने का परिश्रम आरम्भ किया। जैन धर्म, देवगुरुओं के प्रति अटुट श्रद्धा भक्ति के कारण मुनिश्री इन्द्रविजयजी को पंजाब केशरी युगवीर जैन शासन ज्योति आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभसूरीश्वरजी म. का वि.सं. १९९८ में राजस्थान के पाली जिले के सादडी गाँव में सान्निध्य प्राप्त हो गया। बस फिर क्या था, अज्ञानी शिष्य को ज्ञानवान, गुणवान, ध्यानवान गुरु मिल गया। जिनके सान्निध्य में रहकर मुनिश्री इन्द्रविजयजीने जैन धर्म के प्रारम्भिक ज्ञान के साथ संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी आगमो की वाचना शुरु कर दी। राजस्थान के बिजोवा में आचार्य श्री विकासचन्द्रसूरीश्वरजीने अपने कर कमलों से इन्हें वि.सं. १९९९ में बड़ी दीक्षा देकर जैन शासन की अनुपम सेवा के लिये जैन समाजको समर्पित कर दिया था । सुरत में आ. श्री समुद्रसूरिजीने वि.सं. २०१० चैत्र कृष्ण तृतीया को मुनि श्री इन्द्रविजयजी को गणि पद से अलंकृत कर जैन शासन एवं समुदाय का कुछ भार इन पर डाल दिया। गणि पदवी मिलने के बाद लगभग १२ वर्षो तक आपने परमार क्षत्रियो उद्धार का कार्य आरंभ किया ।
इस उद्धार कार्य में दिन रात आपने कार्य कर इनके आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, व्यावसायिक, धार्मिक क्षेत्र में आशातीत प्रगति का बीजारोपण किया । परमार क्षत्रिय लोगो में जैन धर्म का बीजारोपण करने में आपने जितनी मेहनत की सम्भवतः अब तक इसका कोई उदाहरण नहीं हैं । गणिवर्य श्री इन्द्रविजयजी का १२ वर्षो का परिश्रम निष्फल नहीं गया आपने बहुत परमार क्षत्रियों
भाई-बहनों को जैन धर्म स्वीकार करा कर जैन शासन की अनुपम एवं अनोखी सेवा की जिसकी मिसाल इतिहास में मिलना मुश्किल हैं। इतना ही नहीं आपकी मधुरवाणी आत्मीय स्नेह ने तो जैन बने परमार क्षत्रियो पर जादु ही कर डाला और आपकी प्रेरणा एवं सद्उपदेश से ११५ से अधिक भाग्यवानोने जैन भागवती दीक्षा ग्रहण कर ली। इसके अतिरिक्त परमार क्षत्रियो के करीबन ५१ गाँवो में जैन मन्दिर बनाकर इन लोगो को जैन धर्म का पक्का अनुयायी ही बना डाला ।
वि.सं. २०२७ का माह सुधी ७ सोमवार को वरली मुंबई में शान्तमूर्ति आ. विजय समद्रसूरीश्वरजी ने गणिवर्य श्री इन्द्रविजयजी को आचार्यपद देकर आ. श्री इन्द्रदिन्नसूरिश्वरजी का नामकरण कर जैन शासन एवं समुदाय की सम्पूर्ण जिम्मेदारी इन पर सोंप दी। वि.सं. २०३५ में आ.
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