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मोहे मूछित प्राणीकु रामद्वेष प्रति होय । अहंकार ममकार पण, तिणथी शुध बुध जाय ॥११७॥ महिमा मोह अज्ञानथी, विकल हुआ सवि जीव । पुद्गलिक वस्तु विषे, ममता धरे सदैव ॥ ११८ ।। परमें निजपणु मानके, निविड ममत चितधार । विकल दशा वरते सदा, विकल्प नो नहीं पार ॥ ११६ ॥ मैं मेरा ए भाव थी, फिर्यो अनंत काल । जिन वाणी चित्त परिण में, छूटे मोह जंजाल ॥१२०॥ मोह विकल एह जीवको, पुद्गल मोह अपार । पर इतनी समझे नहीं, इसमें कुछ नहीं सार ॥ १२१ ॥ इच्छा थी नवि संपजे, कल्पे विपत ना जाय । पर अज्ञानी जीव को, विकल्प अतिशय थाय ॥ १२२ ॥
प्रेम विकल्प करे घणा, ममता श्रथ अजाण । में तो जिन वचने करी, प्रथम थकी हुम्रो जाण : १२३॥ मैं शुद्धातम द्रव्य हू, ग्रे सब पुद्गल भाव । सडन पडन विध्वंसणो, इसका एह स्वभाव ॥ १२४ ॥ पुद्गल रचना कारमी, विणसंता नहीं वार । प्रेम जाणी ममता सजी, समता गुं मुज प्यार ॥ १२५ ॥ जननी मोह अंधार की, माया रजनी क्रूर । भव दुःखकी ए खाण हैं, इणसु रहिये दूर || १२६ ।।
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