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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञेय वस्तु जाणे सहु, ज्ञान गुणे करी तेह । पाप रहे निज भाव में, नहीं विकल्प को रेह ॥८६॥ ऐसा प्रातम रूप में, मैं हुआ इस विध लोन । स्वाधीन ए सुख छोडके, वंळु न पर आधीन ।।८।। अम जाणी निज रूप में, रहूं सदा होशियार । बाधा पीडा नहीं कछु, पातम अनुभव सार ||८|| ज्ञाम रसायण पाय के, मिट गई पुदगल पाश । अचल अखंड सुख में रम, पूरणानंद प्रकाश ॥८६ । भव उदधि महा भय करू, दुख जल अगम अपार । मोहे मूछित प्राणीकु, सुख भासे अति सार ||६|| असंख्य प्रदेशी पातमा, निश्चे लोक प्रमाण । व्यवहारे देहमात्र छे. संकोच थकी मन प्राण || !! सुख बीरज ज्ञानादि गुण, सर्वांगे प्रतिपूर । जैसे लुन साकर डली, सरवांगे रसभूर ||६२ ॥ जैसे कंचुक त्याग़थी, विणसत नाहीं भुजंग । देह त्यागथी जीव पण, तैसे रहत अभंग ||६|| प्रेम विवेक हृदये धरी, जाणी शाश्वत रूप । थिर करो हुनो निज रूपमें,तजी विकल्प भ्रमरूपll६४i सुखमय चेतन पिंड है, सूख में रहे सदैव । निर्मलता निजरूप की, निरखे क्षण क्षण जीव ||५|| For Private And Personal Use Only
SR No.020484
Book TitleMukti Ke Path Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay, Amratlal Modi
PublisherProgressive Printer
Publication Year1974
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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