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भिन्न लखे पातम थकी, पुद्गल को परजाय । किमहि चलाव्यो नवि चले, कशी परे ते न ठगाय ॥२७२|| भया यथारथ ज्ञान जब, जाणे निज पर भाव । थिरता थई निज रूपमें,नवि रुचे तस पर भाव । २७३।। मुझकु तुम साथे हतो, एता दिन सबंध । अब ते सवि. पूरण हुनो, भावी भाव प्रबंध ।।२७५।। विकल्प कोई तुमे मत करो, धर्म करो थई धीर । मैं पण प्रातम साधना, करूं निज़ मन कर थिरो ॥२७६॥ सहज स्वरूप जे आपणो, ते छे प्रापणी पास । नहीं किसी सुजाचना, नहीं पर की किसी प्राश ॥२७८।। अपना घरमांही प्रछे, महा अमूल्य निधान । ते संभालो शुभ परे, चिंतन करो सुविधान । २७६।। जनम मरण का दुख टले, जब निरखे निज रूप । अनुक्रमे अविचल पद लहे, प्रगटे सिद्ध स्वरूप ॥२८॥ सकल पदारथ जगत के, जाणण देखण हार । प्रत्यक्ष भिन्न शरीरसु, ज्ञायक चेतन सार ॥२८॥ दृष्टांत एक सूणो इहां, बारमा स्वर्ग को देव । कौतुक मिष मध्य लोकमें, प्रावी वसियो हेव ॥२८॥ कोइक रंक पुरुष तणी, शरीर परजायमें सोय । पेसी खेल करे किशा, ते देखे सहु कोय ॥२४॥
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