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पाँच दिन और नव वांचनाओं से श्री कल्पसूत्र को पढ़ते हैं । इस कल्पसूत्र में (कल्प) शब्द से साधुओं का आचार कहा जाता है । उस आचार के दश भेद हैं, जो इस प्रकार हैं 1 आचेलक्य, 2 औद्देशिक, 3 शय्यातर, 4 राजपिण्ड, 5 कृतिकर्म, 6 व्रत, 7 ज्येष्ठ 8 प्रतिक्रमण, 9 मासकल्प और 10 पर्युषणा, इन दश कल्पों की व्याख्या इस प्रकार है:
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1 आचेलक्य
जिस के पास चेल याने वस्त्र न हो वह अचेलक कहा जाता है, उस अचेलक का भाव सो 'आचेलक्य' अर्थात वस्त्र का न होना । वह तीर्थकरों को आश्रित कर के रहा हुआ है। उस में पहले और अन्तिम तीर्थकर को शकेन्द्र द्वारा मिले हुए देवदूष्य वस्त्र के दूर होने पर उन्हें सर्वदा अचेलक अर्थातु वस्त्र रहित होना माना गया है और दूसरे बाईस तीर्थकरों को सदा सचेलक कहा है । साधुओं की अपेक्षा से श्री अजितनाथ आदि बाईस तीर्थकरों के तीर्थ के साघु, जो सरल और प्राज्ञ कहलाते है उन्हें अधिक मूल्यवान विविधरंगी वस्त्रों के उपभोग की आज्ञा होने से सचेलपणा अर्थात् वस्त्र सहितपणा है और कितने एक श्वेतरंगी बहु परिमाण वाले वस्त्र को धारण करने वाले होने के कारण उन्हें अचेलकत्व ही है। इस प्रकार उनके लिए यह कल्प अनियमित रूप से है । जो श्री ऋषभ और श्री वीर प्रभु अचेलक पणा के तीर्थ के साधु हैं वे सब श्वेत और परिमाणवाले जीर्ण पुराने वस्त्र धारण करने वाले होने के कारण अचेलक ही हैं। यहां पर शंका होती है कि वस्त्र का सद्भाव होने पर भी
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