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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 4000 40 500 4050040 www.kobatirth.org कर भगवन्त महावीर प्रभु को बाधा पीडा रहित त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में रखता है और जो त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में गर्भ था उसे देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षी में जा रखता है । यह कार्य कर जिस दिशा से आया था उसी दिशा से असंख्य द्वीप समुद्रों के मध्य में होकर लाख योजन प्रमाण दिव्यगति से उड़ता हुआ जहां पर सौधर्मकल्प में सौधर्मावतंसक नामक विमान में शक्रनामा सिंहासन पर शक्रेंद्र बैठा है वहां आता है, वहां आकर देवेंद्र को उनकी आज्ञा पालन का समाचार सुनाता है। त् वर्षाकाल के तीसरे मास पांचवें पक्ष में आश्विन मास की कृष्ण त्रयोदशी के दिन अर्धरात्रि के समय ब्यासी अहोरात्र रातदिन बीतने पर तिरासीवां अहोरात्र काल बर्तते हुए अपने और इंद्र के हितकारी हरिणेगमेषी देवने देवानंदा ब्राह्मणी के गर्भ से श्रमण भगवंत महावीर प्रभु को भक्ति और देवेन्द्र की आज्ञा से त्रिशला क्षत्रियाणी के गर्भ में रक्खा। यहां पर कवि उत्प्रेक्षा करता है कि प्रभु जो व्यासी रात्रिदिन तक देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में रहे वे सिद्धार्थ राजा के आप्तकुल में प्रवेश करने का शुभ मुहूर्त देख रहे थे, ऐसे तीर्थकर प्रभु तुम्हें पावन करो। भगवान जब से गर्भ में आये तभी से तीन ज्ञानयुक्त थे, अतः वे अपने गर्भ परिवर्तन काल को जानते थे परन्तु अपने आपको स्थान परिवर्तन होते समय उन्होंने नहीं जाना । इस वाक्य से हरिणेगमेषी देव की कार्यकुशलता बतलाई है। रहस्य यह है कि उस देवने प्रभु का ऐसी दिव्य कुशलता से गर्भ For Private and Personal Use Only 40501405004050040 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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