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बातें होनी चाहियें । अब उन दोनों में यदि एक खमावे और दूसरा न खमावे तो जो उपशान्त होता है, खमाता है वह आराधक होता है और जो नहीं खमाता, नहीं उपशमता वह विराधक होता है इस लिए आत्मार्थी को चाहे वह बड़ा हो या छोटा स्वयं उपशर्मित होना चाहिये । हे पूज्य ! ऐसा क्यों कहा ? शिष्य का यह प्रश्न होने पर गुरू कहते हैं कि-जो श्रमणत्व-साधुपन है वह उपशम प्रधान है । यहां पर दृष्टांत देते है-दश मुकुटबद्ध राजाओं से सेवित सिंधु सौवीर देश का अधिपति उदयन राजा-विद्युन्माली देवता से मिली हुई श्रीवीर प्रभु की प्रतिमा के पूजन से निरोगी हुए गंधार नामक श्रावक ने दी हुई गोलि के भक्षण करने से अद्भूत रूप को धारण करनेवाली सुवर्णगुलिका नामा दासी को देवाधिदेव की प्रतिमा सहित हरन करनेवाले और चौदह राजाओं से सेवित मालव देश के चंडप्रद्योत नामक राजा को देवाधिदेव प्रतिमा वापिस लाने के लिए उत्पन्न हए संग्राम में पकड़ कर पीछे आते हुए डशपुर नगर में चातर्मास रहा । वार्षिक पर्व के दिन राजा ने उपवास किया अतः राजा की आज्ञा से रसोइये ने भोजन के लिए चंडप्रद्योत से पूछा कि आप आज क्या खायेंगे ? इससे विष देने के भय से चंडप्रद्योत ने कहा कि-यदि तुम्हारे राजा को उपवास है तो आज मुझे भी पर्युषण होने से उपवास है, मैं भी श्रावक हूं। यह बात राजा को मालूम होने से विचारा कि 'इस धूर्त साधर्मिक को भी खमाये बिना मेरा वार्षिक प्रतिक्रमण शुद्ध न होगा', इस धारणा से उदयन राजा ने
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