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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न मिलेगी" फिर संघ के अत्याग्रह से 'तुमने अन्य को वाचना न देनी' यों कहकर शेष चार पूर्व की फक्त मूल सूत्र से वाचना दी । कहा है कि-जम्बूस्वामी अन्तिम केवली हुए तथा प्रभव प्रभु, शय्यभव, यशोभद्र, संभूतिविजय, भद्रबाहु और स्थूलभद्र ये छह श्रुतकेवली हुए हैं। श्री आर्य महागिरि तथा श्री सुहस्तिसूरि । गौतम गोत्रीय स्थविर आर्य स्थूलभद्रजी के दो शिष्य थे । एक एलापत्य गोत्रीय स्थविर आर्य महागिरि और दूसरे वासिष्ट गोत्रीय स्थवीर आर्य सुहस्तिसूरि । उनका संबन्ध इस प्रकार है:- जिनकल्प विच्छेद होने पर भी जिस धीर पुरूष ने जिनकल्प की तुलना की, ऐसे मुनियों में वृषभ के समान और श्रेष्ठ चारित्र को धारण करने वाले महामुनि आर्य महागिरि को मैं वंदन करता हूं । जिसने जिनकल्प की तुलना की, और सेठ के घर में आर्य सुहस्तिने जिस की स्तवना की ऐसे आर्य महागिरि को मैं वन्दन करता हूं। जिनके कारण संप्रतिराजा सर्व प्रसिद्ध ऋद्धि पाये और परम पवित्र जैनधर्म को पाये उन मुनि प्रवर आर्य सुहस्तिगिरि को मैं वन्दन करता हूं । जिस आर्य सुहस्ति महाराजने साधुओं के पास से भिक्षा मांगते हुए भिक्षुक को दीक्षा दी थी । वह भिक्षु मर कर कहां पैदा हुआ सो कहते हैं । श्रेणिक का पुत्र कोणिक, उस का पुत्र उदायी, उसकी पाट पर नव नन्द, उनकी पाट पर चंद्रगुप्त, उसका पुत्र बिन्दुसार, उसका अशोक, उसका कुणाल और उसका पुत्र यह संप्रति हुआ * । उसे जन्मते ही उस के दादा ने राज्य दे दिया था । एक दिन रथयात्रा में फिरते हुए श्री आर्यसुहस्तिगिरि को है For Private and Personal Use Only
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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