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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कल्पसूत्र हिन्दी सातवां व्याख्यान अनुवाद 0 ||123|| हुए तथा यहां पर मैं प्रभु का प्रपौत्र हूं। यह वृत्तान्त सुन कर सब लोग कहने लगे-"ऋषभदेव समान पात्र. इक्षुरस के समान निरवद्य दान और श्रेयांस के समान भाव, पूर्वकृत पूर्ण पुण्य से प्राप्त होता है'' इत्यादि स्तुति करते अपने अपने घर चले गये । प्रभु का कैवल्य कल्याणक इस प्रकार दीक्षा के दिन से एक हजार वर्ष तक प्रभु का छास्थ काल जानना चाहिये । उसमें सब मिलाकर LG प्रमाद काल सिर्फ एक रातदिन का था । इस तरह आत्मभावना भाते हुए एक हजार वर्ष पूर्ण होने पर जो शरद् L ऋतु का चौथा महीना था, सातवां पक्ष-फाल्गुन मास की कृष्ण एकादशी के दिन सुबह के वक्त पुरिमताल नामक विनीता नगरी के शाखानगर से बाहिर शकटमुख नामक उद्यान में बड़ के वृक्ष के नीचे चौविहार अट्ठम तप किये हुए उत्तराषाढा नक्षत्र में चंद्र योग प्राप्त होने पर ध्यानान्तर में वर्तते हुए प्रभु को अनन्त केवलज्ञान केवलदर्शन 2 उत्पन्न हुआ । यावत् सर्व प्राणियो के भाव को जानते और देखते हुए विचरने लगे । इस तरह एक हजार वर्ष बीतने पर विनीता नगरी के पुरिमताल नामक शाखानगर में प्रभु को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ उसी समय उधर भरत राजा को चक्ररत्न प्राप्त हुआ । उस वक्त विषयतृष्णा की विषमता के कारण 'प्रथम पिता की पूजा करूं या चक्र की ?' भरत इस तरह के विचार में पड़ गये, परन्तु विचार से निश्चय किया कि इस लोक और परलोक में सुख देनेवाले पिता की पूजा करने से सिर्फ इस लोक में ही सख देनेवाले For Private and Personal Use Only
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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