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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir 您整修 . 5हो गया और उसने भी दीक्षा ग्रहण करली । यह दूसरे गणधर हुए । अब वायुभूतिने उन दोनों को दीक्षित हुआ सुनकर विचार किया-जिस प्रभु के इंद्रभूति और अग्निभूति जैस समर्थ शिष्य बने हैं वह मेरे लिये भी पूजनीय हैं, अतः मुझे भी उनके पास जाकर अपनी शंका दूर करनी चाहिये। । यह विचार कर वह भी प्रभु के पास आया एवं सभी आये और प्रभु ने सब को प्रतिबोधित किया । उसका क्रम * इस प्रकार है। अब "तज्जीव तच्छरीर' अर्थात् वही जीव और वही शरीर है, ऐसी शंकावाले वायुभूति को प्रभु ने कहा-क्या त वेद का अर्थ नहीं जानता? क्यों कि-"विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः' इत्यादि वेद पदों से पंचभूतों से जीव पृथक प्रतीत नहीं होता तथा सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष ब्रह्मचर्येण नित्यं ज्यातिर्मयो हि शुद्धो यं पश्यति धीरा यतयः संयतात्मानः, इत्यादि इन पदों ॐ का अर्थ इस प्रकार है । यह ज्योतिर्मय शुद्धात्मा सत्य, तप और ब्रह्मचर्य द्वारा प्राप्य है । यह इन वेद पदों से आत्मा की म पृथक प्रतीति होती है अतः तुझे यह संदेह है कि यह शरीर है सो ही आत्मा है या कोई दूसरा है ? परन्तु यह शंका अयुक्त है, क्योंकि “विज्ञानधन" इत्यादि पदों से हमारे कथनानुसार आत्मा की सत्ता प्रगट की है । यह तीसरे गणधर हुए । ' 1इस रीचा का सार वह है-कि कोई कोई वचन ऐसे होते है जिनमे किसी एक ही वस्तु की तारीफ की जाती है, जैसे गीताजी में कृष्ण की स्तुति की है. इससे दूसरी सब चीजों का अभाव नहीं समझना चाहिये । For Private and Personal Use Only
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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