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-राजचिन्ह समृद्धि से युक्त तथा आभूषणादि की सर्व प्रकार के कान्ति सहित, हाथी घोडा आदि सर्व प्रकार की सामग्री
सहित, ऊंट, खच्चर शिविकादि सर्व प्रकार के वाहनों युक्त, सर्व महाजनों एवं स्वजनों के मिलाप से, सर्व प्रकार के आदरपूर्वक, सर्व प्रकार की संपदा सहित, सर्व शोभायुक्त, सर्व हर्ष की उत्सुकतापूर्वक अठारह प्रकार की नगर में
निवास करने वाली प्रजाओं सहित सर्व नाटकों, सर्व तालाचरों, अन्तेउर सर्व पुष्प, गन्ध, माला और अलंकारों की शोभा ॐ 2से, सर्व बाजों के एकत्रित शब्दों की ध्वनि से, बड़ी ऋद्धि, द्युति, सैन्य, बड़े समुदाय, तथा समकालीन बजते हुए शंख, तपटह, भेरी, झल्लरी,खटमुखी, हुडू क् और देवदुंदुभि के निकलते हुए शब्द के प्रतिरूप बड़े बड़े शब्दोंयुक्त ऋद्धि से दीक्षा | ग्रहण करने को जाते हुए प्रभु के पीछे चतुरंगी सेना से वेष्टितं एवं मनोहर छत्र चामरादि से सुशोभित नन्दिवर्धन राजा चलता है । उपरोक्त आडम्बरयुक्त भगवान् क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के बीच से निकल कर ज्ञातखण्ड नामक उद्यान में
अशोक नामक वृक्ष के नीचे जाते हैं । वहां जाकर प्रभु पालकी को ठहरवा देते हैं । भगवान पालकी से नीचे उतरते हैं, • उतर कर अपने अंग से स्वयं तमाम आभूषण उतार देते हैं । अंगुलियों से सुवर्णमुद्रिकायें, हाथों से वीर वलय, भुजाओं का
से बाजुबन्ध, कंठ से कुण्डल, एवं मस्तक पर से मुकुट उतारते हैं । उन समस्त आभूषणों को कुल की महत्तरा हंसलक्षणवाले वस्त्र में ले लेती है । लेकर वह "इक्खागकुलसमुप्पण्णेसि णं तुम जाया" हे पुत्र ! तुम इक्ष्वाकु ॐ जैसे उत्तम कुल में जन्मे हो तुम्हारा काश्यप नामक उच्च गोत्र है ज्ञातकुलरूपी आकाश में पूर्णिमा के * निर्मल चंद्रमा के समान सिद्धार्थ राजा के और त्रिशला क्षत्रियाणी के तुम पुत्र हो, देवेन्द्रों और नेरन्द्रों ने भी
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