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श्री कल्पसूत्र हिन्दी
प्रथम
व्याख्यान
अनुवाद
गलिक
11411
# प्रतिक्रमण करना चाहिये । शेष तीर्थकरों के साधुओं को दोष लगे तो प्रतिक्रमण करना चाहिये, अन्यथा नहीं । उसमें
भी मध्यम तीर्थकरों के साधुओं को कारण होने पर ही दैवसिक और रात्रिक (राई) प्रतिक्रमण करना चाहिये । इसके अतिरिक्त पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करने की उन्हें आवश्यकता नहीं । यह आठवां प्रतिक्रमण कल्प जानना
9 मासकल्पपहले तथा अन्तिम तीर्थकरों के मुनियों को, मासकल्प की मर्यादा नियम से उन्हें दुष्काल, अशक्ति और रोगादि ग्रन कारणों में शहर के पुरे में, दूसरे महल्ले मे और उस वसति के कौने में परावर्तन कर के भी इस मर्यादा को बनाये रखना
व पालना शास्त्र का आदेश है । परन्तु शेष काल में एक मास से अधिक एक स्थान पर न रहना चाहिये, क्योंकि ऐसा न करने से प्रतिबन्ध, लघुता आदि बहुत से दोष प्राप्त हो सकते हैं । परन्तु मध्यम तीर्थकरों के मुनि सरल और प्राज्ञ होने के कारण उपरोक्त दोषों से वर्जित हैं अतः उनको मासकल्प की मर्यादा नियम से नहीं हैं । वे मुनि एक स्थान पर पूर्वकोटि तक भी रह सकते हैं और दोष लगने की संभावना होने पर महिने के अन्दर भी विहार कर जा सकते है । यह नवमा मासकल्प जानना ।
10 पर्युषण कल्प__पर्युषणा-एक स्थान पर निवास तथा वार्षिक पर्व ये दोनों का नाम पर्युषणा है । वार्षिक पर्व भाद्रपद
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