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(i) ग्रन्थ के स्कन्ध (खण्ड) पर्व, सर्ग, अध्याय, प्रकाण, परिच्छेद, अधिकार, प्रकरण, उद्देशक, ढाल, पद, छन्द,
गाथा, श्लोक आदि की संख्या द्वारा उसका परिमारण बताया गया है । जहाँ उपलब्ध है वहाँ ग्रंथान [ग्रन्थ के कुल अक्षरों की संख्या को 32 (प्राचीन अनुष्टभ् छंद का अक्षर परिमारण) से भाग देने पर आने वाला भजनफल ग्रंथान कहलाता है। संख्या भी लिख दी है। परन्तु कभी-कभी यह ग्रंथान संख्या वास्तविकता से मेल नहीं भी खाती है क्योंकि लिपिक इस संख्या को अनुमान से अथवा बढ़ा चढाकर अथवा परंपरागत शास्त्र वणित परन्त वर्तमान में अनुपलब्ध है, वह लिख देते हैं। सचीपत्र में दी हई पन्नों की संख्या को दुगना करने से पष्ठों की संख्या या जाती है और उसे पंक्ति प्रतिपष्ठ को संख्या से गुणा करने पर ग्रंथ के कुन पंक्तियों की संख्या प्रा जाती है और उसे औसतन अक्षरों की संख्या से गुणा करने पर ग्रन्थ के कुल अक्षरों की संख्या या जाती है जिसमें 32 का भाग देने से ग्रंथान की संख्या प्रा जावेगी -इस प्रकार पाठक स्वयं ग्रंथान अनुमानित कर सकते हैं।
(ii) साथ में यह भी बताया गया है कि प्रति संपूर्ण है या अपूर्ण या त्रुटक और यदि अपूर्ण है तो कितनी
अपूर्णता है। यदि प्रति पूरे ग्रंथ के एक अंश हेतु ही लिखी गई है और वह अंश पूरा है तो उसे 'प्रतिपूर्ण' कहा गया है। प्रथम या अन्तिम पन्ना बहधा नहीं होते हैं तो प्रति को अपूर्ण न कहकर वैसी टिप्पणी लिव दी गई है कि पहला या अन्तिम पन्ना कम है । उपरोक्त परिमाण सूचक शब्दों के प्रथम अक्षर ही बहुधा सूची पत्र में लिखे हैं अतः तदनुसार अर्थ लगा लेना चाहिये - जैसे सं. = संपूर्ण, अ. = अपूर्ण, ग्रं = ग्रन्थान ।
स्तम्भ 10- प्रतिलेखन वर्ष, स्थल व लिपिक :
इस स्तम्भ में प्रति के बारे में तीन प्रकार से सूचना दी गई है-- (i) सर्व प्रथम प्रस्तुत प्रति जिस वर्ष में लित्री गई है वह विक्रम संवत दिया गया है। कदाचित् कहीं पर शक या
वीर संवत् या अन्य साल है तो वैसा विशिष्ट उल्लेख कर दिया गया है। विक्रम संवत् से शक संवत् व ईस्वी सन् क्रमश: 1 35 और 56 कम होता है जबकि वीर सम्वत् 470 अधिक होता है, परन्तु बहुत सी प्रतियों में उनका प्रतिलेखन संवत् लिखा हुअा नहीं मिलता है। ऐसी अवस्था में अनुमान से वह प्रति जिस शताब्दी में लिखी प्रतीत हई वह विक्रम की शताब्दी लिख दी गई है। यद्यपि अनुमान लगाते हुए हमने पर्याप्त अनुदार दृष्टि से काम लिया है (अर्थात संदेहास्पद मामलों में प्रति को प्राचीन की अपेक्षा अर्वाचीन ही बताने की ओर झुकाव रहा है) तो भी अन्दाज तो अन्दाज ही है । अतः पाठकों को सलाह है कि हमारे इस अन्दाज को ठोस आधार न मान लें। भिन्न-भिन्न वर्षों में लिखित प्रतियों की प्रविष्टि जब एक साथ ही की गई है वहाँ कालावधि की सीमायें व यथा योग्य सूचना दे दी गई है।
(ii) दूसरी सूचना प्रति किस स्थल में लिखी गई हैं उसकी है और
(iii) तीसरी सूचना लिपिक के नाम की है
स्तम्भ 11- विशेषज्ञातव्य
उपरोक्त सब के अलावा ग्रन्थ अथवा प्रति के बारे में जो भी सूचना देन। उपादेय या आवश्यक समझा गया है उस वास्ते इस स्तम्भ की शरण ली गई है । यह तरह-तरह की जानकारी से भरा गया है और इसका अवलोकन किये बिना प्रविष्टि पूरी देख ली है ऐसा नहीं कहा जा सकता। इस स्तम्भ में दी गई जानकारी के कतिपय उदाहरण हैं-चित्रित , संशोधित, अपठनीय, जीर्ण, प्रथम प्रादर्श, ताड़पत्रीय या वस्त्र पर, देवनागरी से भिन्न लिपि, स्वाक्षरी, ग्रन्थ का दूसरा प्रचलित नाम, प्रशस्ति है, वत्ति ग्रादि का नाम जो अक्सर वृत्तिकार अपनी कृत्ति को देते हैं, साथ में गौण वस्तू जो संलग्न हो प्रादि 2 ।
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