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॥ बोठी नवपद०॥
॥दोहा॥ जिनवर जाषित शुधनय। तत्वतणी पर तीत ॥ ते सम्यग्दर्शन सदा। शादरिये शु नरीत ॥१॥
॥बंद ॥
सइलरकणस्स । नमोनमो नि म्मलदंसणस्स ॥ विपर्यासहो वासनारूप मि ध्या। टलै जे अनादी अबै जेम पथ्या ॥ जिनोक्त ऊवें सहजथी शह ध्यानं । कहिये दर्शनं तेह परमं निधानं ॥ विना जेहथी ज्ञा न मज्ञानरूपं । चरित्रं विचित्रं नवारण्य कप प्रकृति सात उपशमदये तेहहोवें। तिहांआ परू सदा आप जोवें ॥१॥
॥ ढाल ॥ सुगुरू सुदेव सुधर्मनी सरदहणा चित ध रिये रे । सात प्रकृतिनो क्य करी । कायक समकित वरिये रे ॥ १ ॥ दरसण पद नित वंदीये क० ० । इण विन ज्ञान निफल कह्यो । चारित निफल जायें रे । सिव सुख जे विण नां मिलें । बऊ संसारी थाये रे॥ द०॥ २ ॥ सतसठि नेदें सोनतो । अज
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