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जम्बूचरित्रे
इालुस्थविरयोः कथानकम् ।
तथा-अस्माभिश्चतुरम्बुराशिरसनाविच्छेदिनी मेदिनी, भ्राम्यद्भिः स न कोऽपि निस्तुषगुणो दृष्टः श्रुतो वा क्वचित् ।
यस्याने चिरसंभृतानि हृदये दुःखानि सौख्यानि च (वा), व्याख्याय क्षणमेकमर्द्धमथवा संप्राप्यते निर्वृतिः ।।७२।। ईर्ष्यालुस्थविरयोः कथानकम्-तओ य–कलिरज्जकहा कहिया इय थेरि ! तए कहाविया जाऽसि । अहुणा कहेमि जह मज्झ, संपया पुच्छियाऽसि तए ॥ ७३ ॥ किंतु जह जोगराएण, संकरीए पयासिए तत्ते। विहिओ वंचपयारो, रक्खेयव्वो तहा तुमए DI|| ७४ ॥ जक्खेण पसनेणं, मह दिन्ना मग्गिया इमा लच्छी। तो सावि सुरं तं चेव, निश्चमाराहि लग्गा ।। ७५ ।। दुगुणं
थेरीदिनाउ, मगाए सा सुरो वि सो देइ । तीए सोहंती सावि, पुच्छिया मूलथेरीए ॥७६ ।। कहिए जहदिए सा, पुणोवि ममोइ VI मच्छरेण सुरं । फुट्ट महेगनयणं, तडत्ति तुह पहु! पसाएण ||७|| चितइ किं काहमहं, थेरी एएण चारुरूवेण । तह मह अस
हंतीए, तीए सिरे पडउ पुण वजं ॥ ७८ ।। लद्धे वरंमि संकेइ, सा पुणो किंपि लद्धमेईए । अइलोभेणऽभिभूया, जक्खमखत्तेण | पूएइ ॥७९॥ मग्गेइ पुव्वथेरी, दिन्नाओ दुगुणमेव दव्वया । पंपोट्टाणि व फुट्टाणि, दोवि तो तीए अच्छीणि ॥ ४८०॥ हा INI हा हयास हे जक्ख !, तिक्खदुक्खमि किं तए खित्ता। कह मे जम्मो जाही, जा उक्खये इय पसाउ ते ॥ ८१॥ इय अकोसे
माणी, भणिया जक्खेण सा विलक्खेण । हे चंडि मुंडि रंडे !, किं कुप्पसि मग्गिए दिने ।। ८२ ।। पावे! कुप्पसु नियमच्छरस्स, अहवा अईवलोभस्स । किं तुझ न पुजंतं, दीणारदुगेण पइदियह ॥ ८३ ।। कस्सइ पुविवि लग्गा, आगच्छेती गिहंमि दळूण ।
भणिया सा थेरीए, हाहा जायं किमेयं ति ।। ८४ ॥ भणियमिमीए मह तिव्वदिव्वदोसढुयाए सो जक्खो। स हि रक्खसो व्व IN जाओ, निरंधणा(ला) निग्घिणेण कया ।। ८५॥ पभणइ सा दिव्वस्स व, जक्खस्स व कीस देसि तं दोसं। अप्पाणमुवालंभेसु,
भूरिलोभेण अभिभूयं ।। ८६ ॥ इय कहियं कहिऊण भणियमेईए लडह(ल)उचक्करसकरसुंदरसुक्खकर, पत्तिपत्तपई अट्ठ(द्ध) अम्हिअइपिम्मपर । अवरि पवरि ता सामि ! सोक्खि मा लोभु(ह)करि, जिव न होइ लोभंधल अंधळ थेरी परि ।। ८७ ।।
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॥४३॥
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