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जिनगुणहीरपुष्पमाला
तेरे शत्रु है मदमत्सर इन्होको दावते रहना, क्रोध अहंकार कर दिल को दुखाना ना मुनासिब है ||२|| रोक मन भोग विशयोंसे जरा इन्द्री को वश करले, नैन त्रिया पराईपे चलाना ना मुनासिब है ॥ ३ ॥
पटपट काट के भरले हरी रस खूब हृदय में,
प्रभु व्यापक हैं घट घट मे भुलाना ना मुनासिब हे ॥ ४ । मगन भक्ति मे हो रहना जबर हे नामकी महिमा, हिराचन्द इस दिलको डिगाना ना मुनासिब हे | अगर० । ५
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( ८ ) [ गजल. ]
सत्य मत हार रे सुरो, जो सम्पति जा तो जाने दे । पर उपकार मे तेरी, विके तन तो विकाने दे । १ । अहिंसा जो बडा भारी, धर्म जगमे रहाता है । करो तुम तन व मन धनसे, लोग रिसे तो रिसाने दे |२| पिशाची रूप हे नारी, बिछाई जाल माया की ।
तु मनको राख काबू मे, वे रिझावे तो रिझाने दे । ३ ये जिव्हा तेरी ऐ प्यारे, अंत कुछ काम नही आवे । हिराचन्द को प्रभुका नाम, निराहर वक्त गाने दे । ४ ।