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॥१॥ धर्म अर्थ ने कामो रे, त्रण वर्ग साधतो॥ एक एक प्रति नवि हणे ए ॥१५॥ अतिथि साधु जेह रे, दीन दीण प्रति वली ॥ उचित साचवे निर्म
ए ॥ १३ ॥ अननिनिवेशी एह रे, परप्रनाव त णो ॥ प्रणाम नहिं वली जेहने ए ॥ १४ ॥ श्रादर करे अत्यंत रे, देखी गुणवंता ॥ पक्षपाति होय तेह नो ए ॥ १५॥ हीं नहिंज अकालें रे, वरजे ते दे शडो ॥ गमन करे नहिं त्यां वली ए ॥ १६ ॥ वलि पोतानो चिंती रे,कार्यारंज करे ॥ ज्ञानवृद्धने पूजीयें ए॥ १७ ॥ पञ्चवीशमो गुण जोय रे, बंध स्त्रियादि क ॥ मे करे गुणवंतनो ए ॥१०॥ दीरघदृष्टि होय रे, आगलथी वली ॥ सर्व कामें बालोचतो ए॥१॥ कृत्याकृत्य विशेष रे, श्रावक जाणतो ॥ कीधो गुण नवि विसरे ए ॥ २० ॥ विनयादिक गुण जेह रे, कु ललजा धरे ॥ देखी दीन दया धरे ए ॥१॥ सौ म्याकार मुख सौम्य रे, कोमल वचनशुं॥पर उपका री परगडो ए ॥२॥ काम क्रोध मद लोल रे, श्रा नंद मानशं ॥ अंतरंग वैरी तजे ए॥२३॥ जीते ई जिय पांच रे, ए गुण पांत्रीश ॥ सामान्य पणे में श्रा णिया ए॥ २४ ॥ गुण समकित विशेष रे, व्रत बा
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