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( १७ )
गी जोय ॥ १ ॥ लागो राग कुरंगी साथ, सुरंगी शुंनवि करतो वात ॥ रात दिवस कुरंगीसंग, रमे पुरुष पो ताने रंग ॥२॥ एक दिवस कटकें गयो राय, साथै सुन टने लेइ जाय ॥ बारे वरसें परगट थाय, सेवक ज इने वधामणी खाय ॥ ३ ॥ नारी कुरंगी अतिहिं उ
, खाधुं धन बहु मेली लंठ ॥ जोजननो तव कस्यो विचार, शुं रांधुं आव्यो जरतार ॥ ४ ॥ बुद्धि केलवी नरने कहे, नारी सुरंगी अलगी रहे । वधामणी खाउ तिहां जई, तुऊ घर नर आवे बे सहि ॥ ५ ॥ गयो पुरुष सुरंगी पास, बोल्यो त्यां मनने उल्लास ॥ वधामणी श्राव्यो जरतार, सामग्री कीजें शणगार ॥ ६ ॥ कहे सुरंगी धन्य अवतार, मुऊ जरतारें कीधी सार ॥ दीये वधामणी रांधे अन्न, नर उपर वे निरतुं मन्न ॥ ७ ॥ सुनट वही श्रव्यो तेणे वार, मानेती ज्यां कुरंगी नार ॥ सूती गोदडुं उढी करी, बोले सामी जिम कूतरी ॥ ८ ॥ तुमसे वक आव्यो जे श्रहिं, मुकने वलगो मूके नहिं ॥ शी लवती हुं तारी नारि, वेली काढ्यो में घर बारि ॥ ए ॥ तुमें उतारयो मुशुं प्रेम, वधामणी प र मोकली केम ॥ हवे जाउं तुमें तेहने घरे, प
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